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चतुर्थ अंक
 


कात्यायन—(पत्र देता हुआ)—हाँ, यह लो, यवन शिविर का विवरण है। परन्तु, विष्णुगुप्त, एक बात कहे बिना न रह सकूँगा। यह यवन-बाला सिर से पैर तक आर्य्य-संस्कृति में पगी है। उसका अनिष्ट?

चाणक्य—(हँसकर)—कात्यायन, तुम सच्चे ब्राह्मण हो! यह करुणा और सौहार्द का उद्रेक ऐसे ही हृदयों में होता है। परन्तु मैं निष्ठुर! हृदयहीन! मुझे तो केवल अपने हाथों खड़ा किये हुए एक साम्राज्य का दृश्य देख लेना है।

कात्यायन—फिर भी चाणक्य, उसका सरस मुख-मण्डल! उस लक्ष्मी का अमंगल!

चाणक्य—(हँस कर)—तुम पागल तो नहीं हो गये हो?

कात्यायन—तुम हँसो मत चाणक्य! तुम्हारा हँसना तुम्हारे क्रोध से भी भयानक है। प्रतिज्ञा करो कि उसका अनिष्ट न करूँगा। बोलो।

चाणक्य—कात्यायन! अलक्षेन्द्र कितने विकट परिश्रम से भारतवर्ष के बाहर किया गया—यह तुम भूल गये? अभी है कितने दिनों की बात। अब इस सिल्यूकस को क्या हुआ जो चला आया! तुम नहीं जानते कात्यायन, इसी सिल्यूकस ने चन्द्रगुप्त की रक्षा की थी, नियति अब उन्हीं दोनों को एक-दूसरे के विपक्ष में खड्‌ग खींचे हुए खड़ा कर रही है!

कात्यायन—कैसे आश्चर्य की बात है!

चाणक्य—परन्तु इससे क्या? वह तो होकर रहेगा, जिसे मैंने स्थिर कर लिया है! वर्तमान भारत की नियति मेरे हृदय पर जलद-पटल में बिजली के समान नाच उठती है! फिर मैं क्या करूँ?

कात्या॰—तुम निष्ठुर हो!

चाणक्य—अच्छा, तुम सदय होकर एक बात कर सकोगे? बोलो!चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय में आचार्य बनोगे?

कात्या॰—क्या कह रहे हो? यह हँसी!

चाणक्य—यही है तुम्हारी दया की परीक्षा—देखूँ तुम क्या करते हो! क्या इसमें यवन-बाला का अमंगल है?