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कविता क्या है

न कहकर 'बैल' कह देते हैं। इसका मतलब यही है कि उसकी मूर्खता की जितनी गहरी भावना मन में है वह 'मूर्ख' शब्द से नहीं व्यक्त होती। इसी बात को देखकर कुछ लोगों ने यह निश्चय किया कि यही चमत्कार या उक्तिवैचित्र्य ही काव्य का नित्य लक्षण है। इस निश्चय के अनुसार कोई वाक्य, चाहे वह कितना ही मर्मस्पर्शी हो, यदि उक्ति-वैचित्र्यशून्य है तो काव्य के अन्तर्गत न होगा और कोई वाक्य जिसमें किसी भाव या मर्म-विकार की व्यञ्जना कुछ भी न हो पर उक्तिवैचित्र्य हो, वह खासा काव्य कहा जायगा। उदाहरण के लिए पद्माकर का यह सीधा-सादा वाक्य लीजिए—

"नैन नचाय कही मुसकाय 'लला फिर आइयो खेलन होली'।"

अथवा मण्डन का यह सवैया लीजिए—

अलि! हौं तौ गई जमुना-जल को,
सो कहा कहौं, वीर! विपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई,
इतनेई में गागर सीस धरी॥
रपट्‍यौ पग, घाट चढ्‍यो न गयो,
कवि मंडन ह्वैकै बिहाल गिरि।
चिरजीवहु नंद को बारो अरी,
गहि बाँह गरीब ने ठाढ़ी करी॥

इस प्रकार ठाकुर की यह अत्यन्त स्वाभाविक वितर्क-व्यंजना देखिए—

वा निरमोहिनी रूप की रासि जऊ उर हेतु न ठानति ह्वैहै।
बारहि बार बिलोकि घरी घरी सूरति तौ पहिचानति ह्वैहै॥
ठाकुर या मन की परतीति है, जौ पै सनेह न मानति ह्वैहै।
आवत हैं नित मेरे लिए; इतनो तो विसेष कै जानति ह्वैहै॥

मण्डन ने प्रेम-गोपन के जो वचन कहलाए हैं वे ऐसे ही हैं जैसे जल्दी में स्वभावतः मुँह से निकल पड़ते हैं। उनमें विदग्धता की अपेक्षा स्वाभाविकता कहीं अधिक झलक रही है। ठाकुर के सवैये में