पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१८८
चिन्तामणि

बहुत आते हैं; उर्दू में अरबी-फारसी के। परन्तु कुछ आवश्यक नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाय और न हम उस भाषा को हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों।"

ऊपर के अवतरण से स्पष्ट है कि जिस समय राजा लक्ष्मणसिंह और राजा शिवप्रसाद मैदान में आए थे उस समय खींचतान बनी थी; भाषा के स्वरूप को स्थिरता नहीं प्राप्त हुई थी। वह भाषा का प्रस्तावकाल था। प्रवर्त्तन-काल का आरम्भ भारतेन्दु की कुछ रचनाओं के निकल जाने के उपरान्त संवत् १९३० के लगभग हुआ। यद्यपि इसके पहले 'विद्यासुन्दर' (संवत् १९२५) तथा और कई नाटक भारतेन्दुजी लिख चुके थे, पर वर्त्तमान हिन्दी-गद्य के उदय का समय उन्होंने "हरिश्चन्द्रमैगज़ीन" के निकलने पर, अर्थात् संवत् १९३० से, माना है।

भारतेन्दु की भाषा में ऐसी क्या विशेषता पाई गई कि उसका इतना चलन उन्हीं के सामने हो गया, इसका थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। संवत् १८६० में खड़ी बोली के गद्य का सूत्रपात करनेवालों में मुंशी सदासुख और सदल मिश्र ने ही व्यवहार-योग्य चलती भाषा का नमूना तैयार किया था। पर इन दोनों की रचनाओं में सफ़ाई नहीं थी। बहुत कुछ कूड़ा-करकट भरा था मुंशी सदासुख भगवद्भक्त पुरुष थे और पण्डितों और साधुसन्तों के सत्संग में रहा करते थे। इससे उनके "सुखसागर" की भाषा में बहुत कुछ पण्डिताऊपन है। उनकी खड़ी बोली उस ढंग की है जिस ढंग की संस्कृत के विद्वान् पण्डित काशी, प्रयाग आदि पूरब के नगरो में बोलते थे और अब भी बोलते हैं। यद्यपि मुंशीजी ख़ास दिल्ली के रहनेवाले थे और उर्दू के अच्छे कवि और लेखक थे; पर हिन्दी-गद्य के लिए उन्होंने पण्डितों की बोली ही ग्रहण की। "स्वभाव करके वे दैत्य कहलाए", "उसे दुख होयगा," "बहकावनेवाले बहुत हैं" इस प्रकार के प्रयोग उन्होंने बहुत किए हैं। रहे सदल मिश्र; उनकी भाषा में पूरबीपन बहुत अधिक है। 'जो'