पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१०८

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काव्य में रहस्यवाद १०१ भी श्लेष, यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा इत्यादि की कसी हुई भरती, तथा विभाव, अनुभाव और सञ्चारी की रस्म-अदाई पर ही वाह-वाह करने की चाल पड़ गई। कुछ-कुछ इसी प्रकार की दशा जब योरप में हुई और किसी काव्य की उत्तमता का निर्णय साहित्य की बंधी हुई रीति-विधि के अनुसार ही होने लगा, तब प्रभाववादी ( Impressionists ) उठ खड़े हुए, जिन्होंने सुझाया कि किसी काव्य की उत्तमता की सच्ची परख यही है कि वह हृदय पर कैसा अभाव डालता है, उससे किस प्रकार की अनुभूति उत्पन्न होती है। प्रभाववादियों के अनुसार किसी काव्य की ऐसी आलोचना कि “यहाँ रूपक का निर्वाह वहुत अच्छा हुआ है, यहाँ यतिभङ्ग है, यहाँ रसविरोध है, यहाँ पूर्णरस है, यहाँ च्युतसंस्कृति या पतत्प्रकर्ष है” कोई आलोचना नहीं । मान लीजिए कि कोई सुन्दर काव्य हमारे सामने है। उसे पढ़ने में हमे आनन्द की गहरी अनुभूति हो रही है ! बस, यही हमारा आनन्द ही हमारा निर्णय है । इससे बढ़कर और निर्णय क्या हो सकता है ? इसके आगे हम बहुत करेगे तो उस आनन्द की विवृति करेंगे कि उक्त काव्य का हमारे हृदय पर यह प्रभाव पड़ता है, उससे ये ये अनुभूतियाँ उत्पन्न होती है। यह ठीक है कि दूसरे लोग उसी काव्य से दूसरे प्रकार की अनुभूतियों प्राप्त करेगे और उन्हें और ही ढंग से प्रकट करेंगे । करें , प्रत्येक सहृदय को अधिकार है कि वह उसके सम्बन्ध में अपनी अनुभूतियाँ प्रकट करे । इस प्रकार एक ही काव्य पर भिन्न-भिन्न प्रकार के और कई कला-ग्रन्थ तैयार हो जायेंगे । वे सब ग्रन्थ उस काव्य से और ही वस्तु होंगे, यह अवश्य है । पर यही आलोचना-कला है। इसके आगे समालोचना जायगी कहाँ ? | प्रभाववादी के उपर्युक्त कथन पर यदि कोई कहे तो कह सकता है कि “हमे तुमसे प्रयोजन नहीं , उस काव्य से है । तुम्हारे भीतरी