पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१०२

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चित्रशाला - पश्चात् बोला-वह वदा पदमाश आदमी है। गांव-भर उससे ररता है। उसके डर के मारे कोई स्त्री अजी बाहर नहीं जाती। और, जो हुआ सो हुश्रा, अय केली मत जाना। पती ने कहा--जय वह ऐसे हैं, तो यहाँ रहते क्यों हो? शंकरश-रहें न, तो जाय कहाँ ? पुराने पुरखों का घर-द्वार छोद दे? पत्नी-गेमा घर-द्वार किस काम का? जहाँ हाजत घायल में वहा जगे ! इन्हें कोई ठीक भी नहीं कर देता ? शंकरबनश-इन्हें भगवान् हो. ठीक करेंगे, और कौन कर सकता है? जमींदार है, उनके सामने बात कौन कर सकता है ? जरा कोई योले, जूते जगवा दें। घर फुकवा दें। वह सब कुछ करा सकते हैं । पत्नी-जय लोग इतना डरते हैं, तो अपनी बहू-बेटियाँ भी उन्हें सौंप देते होंगे? शंकरयाश-सो तो कोई भला धादमी नहीं करता । सब अपनी. अपनी खबरदारी रखते हैं। पती-पत्यर खबरदारी रखते हैं। श्राज ही जो वह मेरे हाय लगा देता, तो तुम क्या करते ? वहाँ मुझे कौन बचानेवाला या ? शंकरवनश-अरे हाय लगाना दिल्लगी नहीं है! पत्नी-मेरे मायके में ऐसा ज़मींदार होता, तो वोटी-चोटी उदा दी जाती। शंकरवनाश-अँगरेज़ी श्रमबदारी है, बोटी-बोटी उड़ाना सहज नहीं है। पती-अपनी जान का इतना दर है, तभी तो राह चलते वह दादीनार बहू-बेटियों को छेड़ता है और किसी के कान पर नहीं रेंगती, सब चूड़ियाँ पहने बैठे हैं ! क्या कहूं, जो मैं मर्द होती तो नासमारे की छाती पर चढ़कर खून पी लेती। मैं टस वाप की बेटी .