पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/११४

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१०६ चित्रशाला अपमान अश्रा ! मैंने ऐसी कविताएँ लिखीं कि उनमें अपना फलेजा निकालकर रख दिया ; पर मुझे महाराज ने इतना पुरस्कार कमी नहीं दिया। इसके अतिरिक्त महाराज ने उसको भी "राजकवि" को उपाधि देकर अपने यहाँ नौकर रख लिया है। पलो-रख लिया तो क्या हुआ ? कुछ वह तुम्हारा भाग्य तो छीन ही न लेगा। प्रवीण- तुम स्त्री-जाति इन बातों को क्या जानो ? जब एक ही कविता सुनकर उनकी यह दशा हो गई कि उचित्तानुचित का ध्यान न कर उस छोकरे को मेरे सामने इतना सम्मान दिया, तो श्रागे न. जाने क्या होगा! पत्नी-तो जब होगा तब होगा, तुम अभी से अपना जी क्यों कुदाते हो ? चलो, भोजन करो चलो। प्रवीण-भोजन क्या करूँ। मैं सोचता था कि यदि यह नाला यक अंबिकाप्रसाद (पुत्र का नाम) किसी नायक होता, तो मेरे नीचे इसी को राजकवि का स्थान मिलता । अव मेरे पीछे की कौन कहे, मेरे होते हुए ही एक दूसरा व्यक्ति वह स्थान छीने लिए जा रहा है । इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या होगा ? पत्री---तुम तो उस दिन कहते थे कि अंविका प्रश्न यच्छी कविता कर लेने लगा है। प्रवीण-कविता क्या कर लेने लगा-हाँ, जो नी लगावे थोर परिश्रम करे, तो कर सकता है । पर वह तो जी ही नहीं लगाता। पत्नी-तो श्रमी उसकी उमर ही क्या है ? बच्चा तो है ही। जैसे-जैसे सयाना होगा, जी भी लगावेगा। प्रवीण-अव सधाना और कब होगा । वह भी तो अभी बदका ही है। अधिक से अधिक २४-२५ वर्ष का होगा।