१३४ चित्रशाला वैरि०-अच्छे-बुरे की वास नहीं, बात केवल धाक की है । उन की धाक जमी हुई है, इस कारण बोग पहले उन्हीं को पूछते हैं। इम चाहे उनसे यधिक परिश्रम करें; पर हमें कोई नहीं पतियाता। नाम निकल जाने की बात है। उनका नाम हो गया है, इसलिये लोग उन्हीं की तरफ दौड़ते हैं। पली-तुम जब पुराने हो जाओगे, तब तुम्हें भी उतना मिलने लगेगा। वैरिक-तब तो मिलेगा ही। परंतु बुढ़ापे में धन पाया, तो किस काम का ! खाने-खच के दिन तो यही है। अभी मिलता, तो श्रानंद था। इसी प्रकार बैरिस्टर साहव रात के बारह बजे तक झींकते रहे - जब बड़ो ने टनाटन बारह बजाए, तब वह चौककर बोले-पोफ घोह ! बारह बज गए । अब सोना चाहिए । यह दुखदा तो नित्य . (2) इधर बैरिस्टर साहब दो सहन मालिक की याय-होने पर भी रात-दिन 'हाय रुपया, हाय रुपया' ही चिल्लाते रहते थे । कोई दिन ऐसा न जाता, जिस दिन वह निश्चित होकर सुख-शांति के साथ भोजन करते हों । उठते-बैठते, खाते-पीते, हमेशा यही चिंता कि रुपए हों, तो यह कोठी खरीदें, वह बाग़ ले लें, इस तरह की गादी मॅगावें। अच्छे-से-अच्छा खाते-पहनते थे ; पर सुख-शांति का प्रभाव था। हाय-री राक्षसी तृष्णा! बाहर से तो जो बैरिस्टर साहब को देखता था, वह समझता था कि वह बड़े सुखी हैं, ईश्वर का दिया सब कुछ है। परंतु वैरिस्टर साहब की नीयत का हाल किसी को क्या मालूम ? उनकी नीयत का हाल यह था कि जहाँ किसी को बढ़िया गाड़ी पर निकलते देखते, वहीं ठंडी सासें भरकर प्राह मारते । जब 5
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