शिवशाला ! दूसरा टाट और नहीं, उसके लिये दो हजार न्यामत है, क्योंकि उसके लिये दुष्प्राप्य है। संसार का यही नियम है, यही चलन है। एक राजा और एक मिन्तारी के हृदय में टम समय तक कोई अंतर नहीं, जब तक कि दोनों में तृष्णा, श्राफांदा या अमिलापा भरी हुई है । बाहर से देखने में यदि एक शानदुशाल लपेटे है, और गृहद, ठो इसमें क्या होता है। श्राग का काम जन्माने का। टसे मनमन में लपेटो, तो उसे भी जला देगी और टाट में लपेटो, तो उसे भी न छोड़ेगी। एक दिन वनश्यामदास ने बैरिस्टर विश्वेश्वरनाय की अपने यहीं दावत की । बनन्यामदास स्वयं नियत समय पर बैरिस्टर साहब के यहाँ पहुँचे, चौर बोले-चनिए । विश्वेश्वरनाय ने मुसकिराकर कहा-यह तो बतलायो, क्या- क्या खिलायोगे? बनायाम-जो दान-दलिया गरीब के यहाँ है, वही तिलाऊँगा। विश्वेश्चर-कुछ टसका भी दौन है ? वनश्याम-विनकृश नहीं; न यंदा बुद्र पिए, न किसी को पिलावे । विश्वेश्वर-यह तो बाटे की बात है यार । विना मुहर गळे दो यार जोगों से लुकमा न टाया जायगा । बनश्याम-यदि यह बात है, तो श्राप यहीं से पीते चलिए। वहीं पहुँचते ही तुरंत नाना मिज जायगा। विश्वेश्वर-बैर, यों ही सही; पर इस वक्त जितनी पिऊँगा, उसका विज तुम्हारे पास भेगा। यह कहकर विश्वेश्वरनाय मुसकिराने हुए अंदर चले गए । प्राध चंटे के बाद निकले 1 इस दक्क वह के हिंदू बने हुए थे। बोती, कोट, मेन्ट टोपी इत्यादि से सुसजित थे । दोनो व्यक्ति मोटर में बैठकर वनश्यामदास के यहाँ पहुंचे। . -
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१४४
दिखावट