ईश्वर का उर सब गाँव - . - कालका-अब उनका दीन-ईमान जाने, हमारी तो लोटा-थाली विक गई । काहे ननकू काका, वेजा कहता हूँ? ननकू-नहीं चबुश्रा, बेजा क्या है। रे, जानता है जैसे ठाकुर साहब हैं। पर क्या किया जाय, जबरदस्त का ठेंगा सिर पर! यही ठाकुर साहब है, पर साल हमें बुलाया, और बोले-कहो ननक, अव कुछ रुपए-उपए नहीं लेते। मालूम होता है, बड़े माल- दार हो गए हो। मैंने कहा-मालिक, करज लेने का बूता नहीं है लेना सहज है, पर देना कठिन पड़ जाता है। बोलेइतना कमाते हो, कुछ हमें भी तो दिया करो। मैं कुछ नहीं बोला । दूसरे दिन गाँववालों ने कहा-ठाकुर साहब से कुछ करत ले लेस्रो, नहीं तो क्सिी इलत में फंसा देंगे। तब भैया पचीस रुपए उनसे लिए । इकन्नी रुपए का व्याज देता हूँ। फालका-तो बिना जरूरत ले लिए? ननकू-क्या करें बबुना, डेढ़ रुपया महीना उन्हें बैठे-बिठाए देते है। न दें, तो भला कल से बैठने पायें ? दूसरा व्यक्ति बोला-ननकू भैया, तुम्हारा हाल जाना हो या न हो, अभी त्यौरुस ऐसे ही कलुभा छाछी से कहा था। उसने उनकी बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया । बस, तीसरे ही दिन रात को सारा खेत उजाड़ दिया; रात-भर में सब वाली काट ली गई खाली पौदे ठ-ऐसे खड़े रह गए ! कलुश्रा बहुत दौड़ा-धूपा, रपोट की, पर कुछ न हुश्रा । पता ही न लगा। ग़रीब पेट मसोसकर रह गया । ढाई-तीन सौ रुपए के मत्थे गई। सधुवा एक लंबी साँस खींचकर बोला---एक न एक दिन भगवान् गरीबों की सुनेंगे ही। ननकू-अरे, ज. सुनेंगे तब अभी तो सबको परे डाल रहे हैं। नं किसी को खाते देख सकें, न पहनते । हमारे काका जव इनके पास । . .
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१८७
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