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चोखे चौपदे

की गई सॉसत धरम के नाम पर।
जी कड़ा कर कब तलक कोई सहे॥
किस लिये माथे किसी के पड़ गये।
जब तिलक तुम नित बिगड़ते ही रहे॥

हो धरम का रंग बहुत तुम पर चढ़ा।
हो भले ही तुम भलाई मे सने॥
पर तिलक जब है दुरगी ही बुरी।
तब भला क्या सोच बहुरंगी बने॥

नेक के सिर पर पड़ी कठिनाइयाँ।
नेकियों की ही लहर में है बही॥
तुम तिलक धुलते व पुँछते ही रहे।
पर तुमारी पूछ होती ही रही॥

लोग उतना ही बढ़ाते हैं तुम्हे।
रंग जितने ही बुरे हो चढ़ गये॥
पर तिलक इस बात को सोचो तुम्ही।
इस तरह तुम घट गये या बढ़ गये॥