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चोखे चौपदे


क्या रहा सामने घड़ा रस का।
जब नहीं एक बूंद पाती तू॥
पत गँवा लोप कर रसीलापन।
है अबस जीभ लपलपाती तू॥

थी जहाॅ सूख तू वही जाती।
पड़ बिपद मे भली न उकताई॥
प्यास के बढ़ गये बिकल हो कर।
किस लिये जीभ तू निकल आई॥

किस लिये तब तू न सौ टुकड़े हुई।
तब बिपद कैसे नही तुझ पर ढही॥
काट देने को कलेजा और का।
जीभ जब तलवार बनती तू रही॥

जीभ तू थी लाल होती पान से।
पर न जाना तू किसी का काल थी॥
धूल में तेरा ललाना तब मिले।
तू लहू से जब किसी के लाल थी॥