पृष्ठ:छाया.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
११३
मदन-मृणालिनी
 


जिस तरह वीणा की झंकार से मस्त होकर मृग स्थिर हो जाता है, अथवा मनोहर वंशी की तान से झूमने लगता है, वैसे ही मृणालिनी के मधुर स्वर मे मुग्ध मदन ने कह दिया---क्यों न चलूंगा।


सारा संसार घड़ी-घड़ी-भर पर, पल-पल-भर पर, नवीन-सा प्रतीत होता है, और इससे उस विश्व-यत्र को बनानेवाले स्वतंत्र की बड़ी भारी निपुणता का पता लगता है, क्योंकि नवीनता की यदि रचना न होती, तो मानव-समाज को यह संसार और ही तरह का भासित होता । फिर उसे किसी वस्तु की चाह न होती, इतनी तरह के व्यावहारिक पदार्थों को कुछ भी आवश्यकता न होती । समाज,राज्य और धर्म के विशेष परिवर्तन-रूपी पट में इसकी मनोहर मूर्ति और भी सलोनी देख पड़ती है। मनुष्य बहुप्रेमी क्यों हो जाता है ? मानवों की प्रवृत्ति क्यों दिन-रात बदला करती है ? नगर-निवासियों को पहाड़ी घाटियां क्यों सौन्दर्यमयी प्रतीत होती है ?विदेश-पर्यटन में क्यों मनोरंजन होता है ? मनुष्य क्यों उत्साहित होता है ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में केवल यही कहा जा सकता है कि नवीनता की प्रेरणा !

नवीनता वास्तव में ऐसी ही वस्तु है कि जिससे मदन को भारत से सीलोन तक पहुँच जाना कुछ कष्टकर न हुआ !

विशाल सागर के वक्षस्थल पर दानव-राज की तरह वह जहाज अपनी चाल और उसकी शक्ति दिखा रहा है। उसे देखकर मदन को द्रौपदी और पाण्डवों को लादे हुए घटोत्कच का ध्यान आता था !

उत्ताल तरंगों की कल्लोल-माला अपना अनुपम दृश्य दिखा

छा०८