सिकन्दर के अधीन होगा । सिकन्दर ने भी उसी को यहां की रानी बनाया और कहा--भारतीय योद्धा जो तुम्हारे यहां आये है, वे अपने देश को लौटकर चले जायें । मै उनके जाने में किसी प्रकार की बाधा न डालूंगा। सब बातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली
गयी।
राजपूत वीर अपने परिवार के साथ उस दुर्ग से निकल पड़े, स्वदेश की ओर चलने के लिये तैयार हुए । दुर्ग के समीप ही में एक पहाड़ी पर उन्होंने अपना डेरा जमाया, और भोजन करने का प्रबन्ध करने लगे।
भारतीय रमणियां जब अपने प्यारे पुत्रों और पतियों के लिये भोजन प्रस्तुत कर रही थीं, तो उनमें उस अफगान-रमणी के बारे में बहुत बातें हो रही थीं, और वे सब उसे बड़ी घृणा की दृष्टि से देखने लगी, क्योंकि उसने एक पति-हत्याकारी को आत्मसमर्पण कर दिया था । भोजन के उपरान्त जब सब सैनिक विराम करने लगे,तब युद्ध की बातें कहकर अपने चित्त को प्रसन्न करने लगे । थोड़ी देर नहीं बीती थी कि एक ग्रीक अश्वारोही उनके समीप आता दिखाई पड़ा, जिसे देखकर एक राजपूत युवक उठ खड़ा हुआ और उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
ग्रीक सैनिक उसके समीप आकर बोला--शाहंशाह सिकन्दर ने तुम लोगों को दया करके अपनी सेना में भरती करने का विचार किया है। आशा है कि इस संवाद से तुम लोग बहुत प्रसन्न होगे।
युवक बोल उठा---इस दया के लिये हम लोग कृतज्ञ है, पर अपने भाइयों पर अत्याचार करने में ग्रीकों का साथ देने के लिये हम लोग कभी प्रस्तुत नहीं है।
ग्रीक---तुम्हें प्रस्तुत होना चाहिये, क्योंकि यह शाहंशाह सिकन्दर की आज्ञा है।