पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१०

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(१०) जगद्विनोद ! दोहा-दुरिहिंते हग दै रहति, कहै कळू नहिं बात । छिनक छबीतेको मुतिय, छुवन देति क्यों गात ॥ इक समान जप कै रहत, लाज मदन ये दोय। जातियके तनुमें तनाहि, मध्या कहिये सोय ॥४२॥ अथ मन्याका उदाहरण-सबैमा ।। आईजुचालिगोपालघरै बजबालविशाल मृणालसोंबाही । त्योपदमाकर मूरतिमें रति छू न सके कितहूं परछाहीं ॥ शोभितशंभु मनो उरऊपर मौज मनोभवकी मनमाहीं । लाजविराजरही अँखियानमेंप्राणमें कान्हजबानमें नाहीं ।। दोहा-मदन लाजवश तियनयन, देखत बनत इकन्त । इते खिंचे इत उत फिरत, ज्यों दुनारिकेकन्त४४॥ ललितलाजकछुमदनबहु, सकल केलि केखानि । प्रौढ़ा ताहीसों कहत, सुकविनको मनमानि ॥४५॥ ॥ अथ प्रौढका उदाहरण ।। कवित्त-रतिविपरीति रची दम्पति गुपति अति, मेरे जानि मानिभय मनमथ नेजेते । कहैं पदमाकर पगी यो रस रंग जामें, खुलिगे सुअंग सब रंगन अमेजेते । नीलमणि जटित सुचेंदा उच्च कुचपै, परेउ है दाट ललित ललाटके मजेजेते। मानी गिरेउ हेमगिरि भंगपै सुकेलिकार, कडिक लंक कलानिधिक करेजेते ॥ ४६॥