पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१०७

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जगद्विनाद । (१०) देखो देखिबेको दिव्य देवता तितै रहे । शैल तजि बैल तजि फैल तजि गैलन में, हेरत उमा को यों उमापति हितै रहैं । गौरिन में कौन धौं हमारी गुण गौरिएहैं, शंभु घरी चारकलौं चकत चितै रहैं ॥ ५॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त- वेऊ आये द्वारेही हूँ हुती अगवारे और, द्वारे अगवारे कोऊ तौन तिहि कालमें । कहै पदमाकर वे हरषि निरखि रहैं, त्योंही रही हरषि निरखि नँदलाल में ॥ मोहिं तो न जान्यो गयोमेरीआलीमेरोमन, मोहनके जाइधौं परयो है कौन ख्यालमें । भून्यो भौह भालमें चुस्योकै टेढ़ी चालमें, छक्यो के छबिजालमें कैवींध्योवनमालमें ॥६॥ दोहा--किधौं सुअधपक आममें, मानहुँ मिलो मलिन्द । किधौं तनक दै तमरह्यो, के ठोढीको बिन्द॥१०७॥ इति श्रीकूर्मशावतंसश्रीमहाराजाधिराजराजेन्द्रश्रीसवाई महाराजजगलिहाज्ञयाकविपद्माकरविरचितजग- विनोदनामकाव्येसंचारीभावप्रकरणम् ॥ ४॥ अथ थायी भाव।। दोहा--रस अनुकूल विचार जो, उर उपजवहै आय । थायी भाव बखानहीं, तिनहीको कविराय ॥१॥