पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१२३

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उमहत हैं। जगाद्रनोद । (१२३) साँवरे जो रावरे यों बिरह बिकानी बाल, बन बन बावरी लौं वाकिबो करतिहै ॥ २६॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त-प्राणन प्यारे तनु तापके हरण हारे, नन्दके दुलारे व्रजवारे कहै पदमाकर उरूझे उर अन्तर यों, अन्तर चहेहू जे न अन्तर चहत हैं । नैनन बसे हैं अंग अङ्ग हुलसे हैं रोम, रोमनि रसे हैं निकसे हैं को कहत हैं। ऊधो वे गोबिन्द कोऊ और मथुरामें यहां, मेरो तो गोबिन्द मोहिं मोहिं में रहत हैं ॥५७॥ दोहा--निरखत बनघनश्यामकहि, भटतिउठातजुबाम । विकल बीचही करत जनु, कर कमनती काम ॥ दशा वियोगहि की कहत, जुहै मूरछा नाम ॥ जहँ न रहत सुधि कौनहूं, कहाशीव कहँ घाम।।५९।। मू का उदाहरण ॥ फवित्त-ये नन्दलाल ऐसी व्याकुल परी है बाल, हालही चलौ तौ चलौं जोरि जुरिजायगी। कहै पदमाकर नहीं तो ये झकोरै लगैं, औरैल अचाका बिन घोरे घुरि जायगी। सीरे उपचारन घनेरे घनसारन को, देखवहीदेखौ दामिनी लौं दुरि जायमी । 7