पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१३५

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जगद्विनोद । ( १३५) दोहा--घन वर्षत करपर धरयो, गिरि गिरिधर निरशंक । अजब गोपसुत चरित लखि, सुरपति भयोसशंक ॥ अथ शान्तरस वर्णन ॥ दोहा--सुरस शान्त निर्वेद हैं, जाको थाई भाव । सतसंगत गुरु तपोवन, मृतक समान विभाव ॥१७॥ प्रथम रुमांचादिक तहां, भाषत कवि अनुभाव । धृति मति हरषादिक कहै, शुभ सञ्चारी भाव ॥ शुद्ध शुक्ल रङ्ग देवता, नारायण नारायण है तान। ताको कहत उदाहरण, सुनहु सुमति दैकान ।। 9 शान्तरसका उदाहरण सवैया ॥ बैठि सदा सतरंगही में विषमानि विषयरस कीर्ति सदाहीं ॥ त्यो पदमाकर झूठ जितो जग जानिसुज्ञान हिके अवगाहीं ॥ नाककी नोकमें डीठि दिये नितचाहैन चीजकहूँचितचाहीं। संतत संतशिरोमणिहै धनहै धन वे जनवै परबाहीं ॥२०॥ दोहा-वनवितान रवि शशिदिया, फलभइ सलिल प्रवाह । अवनि सेज पंखा पवन, अब न कछू परवाह ॥ सबहितते बिरकत रहत, कछू न शंकात्रास ॥ विहितवरत सुन हितसमुझि; शिशुवतजे हरिदास ॥ इति नवरसनिरूपणम् ।