पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

-सवैया ॥ जगद्विनोद । (१७) होतो श्यामरङ्ग में चोराइ चित्त चोरा चोरी, बोरत तो बोरयो पै निचोरत बन नहीं ॥ ७८ ॥ दोहा-चढ़ी हिंडोरे हर्ष हिय, जस तिय वसन सुरंग । तिय झूलत पिय संगमें, मन झूलत हार सङ्ग ॥७९॥ अनव्याही तिय होत जह, सरसपुरुष रसलीन । ताहि अनूढा कहत हैं, कवि पंडित परवीन ॥ ८ ॥ अथ अनूढाका उदाहरण- जाबनहीं कुल गोकुलमें अरुदूनीदुहूंदिशिदीपति जागै। त्योपदमाकर जोईसुनै जहँ सो तहँ आनँद में अनुरागै ॥ एदई ऐमो कछू कर ज्योत जू देखें अदेखिनके दृगदागै जामेनिशंक है मोहनको भरिये निजअंककलंक न लागै ॥ दोहा--कुशल करै करता तौ, सकल शंक सिय राय । यार कारपनको जुपै, कहूं व्याहि लैजाय ॥ ८२ ॥ इक परकीया को कहै, षट् विधि भेद बखानि। प्रथमहिं गुप्ता जानिये, बहुरि विदग्धामानि ॥८३॥ ललित लक्षिता तीसरी, चौथी कुलटा होय । बचई मुदिता षष्ठई, है अनुसैना सोय ॥ ८४ ॥ कही जो गुप्ता तीन बिधि, सुकबिनहूं समुझाय । भूतसुरत संगोपना, प्रथम भेद यह आय ॥ ८५॥ वर्तमान रवि गोपना; भेद दूसरी आन । पुनि भविष्य रति गोपना, लक्षण मान प्रमाण८६॥ ।