पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/२८

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(२८) जगद्विनोद । पिय जाको परदेशमें, प्रोषितपतिका प्रोषितपतिका सोय । उदित उदीपन ते जुतन, सन्तापित अतिहोय ॥४३॥ अथ मुग्धा प्रोषितपतिका उदाहरण ॥ कवित्त-मांगि सिख नौदिनकीन्योतिगेगोविंदतिय, सोदिन समान छिनमानि अकुलावै है । कहै पदमाकर छपाकर छपाकरते, वदन छपाकर मलीन मुरझाव है ॥ बुझत जु कोऊकै कहा री भयो तोहिं तब, औरही की और कछु भेद न बतावै है । आंसुनके मोचन सकोचवश आलिन में, उलही बिरह बेलि दुलही दुरावै है ॥४४॥ पुनर्यथा--सवैया ॥ बालमके बिछुरे बजबालको हालकह्योनपरैकछु ह्याहीं। बैसीगईदिनतीनहीमें तब औधिलौंक्योछजिहैछबिछाहीं । तीरसों धीर समीर लगै पदमाकर बूझिहू बोलत नाहीं । चन्द्र उदयलखि चन्द्रमुखी मुखमन्दहै पैठतिमन्दिर माहीं। दोहा--भरति उसाँसन हग भरति, करति गेहको काज । पलपल पर पीरी परति, परी लाजके राज ॥१६॥ मच्या प्रोषितपतिका-सवैया ॥ अबढहै कहा अरविन्दसों आननइन्दुके आइहवाल परयो । पदमाकर भाषैनभाषेबनै जिय ऐसे कछू बकसालै परयो ।