पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/४९

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जगदिनोद । (४९) अथ दिवाअभिसारिका ॥ कवित्त--दिनकै किंवार खोलि कीनो अभिसारपै न, जानिपरी काहू कहां जाति चली छलसी । है पदमाकर न नाकरी सकारै जाहि, कांकरी पगन लग पंकजकै दलसी ॥ कामदसों कानन कपूर ऐसी धूरिलगै, पदसों पहार नटी लागतहै नलसी। घाम चांदनीसों लगै इन्द्रसों लगवि रवि, मग मखतूल सों मही हूं मखमलसी ॥ ३९ ॥ दोहा--सजिसारँग सारँग नयनि, सुनि सारंग वन माँह । भर दुपहर हरिपै चली, निरखि नेहकी छाँह॥४॥ अथ कृष्ण अभिसारिकाका उदाहरण-सवैया ।। सांवरी सारी सखीसँगसांवरीसांवरेधारि विभूषणध्वैकै । त्यों पदमाकर सांवरेईअंग रागनिआंगीरचीच द्वैकै ॥ सांवरी रैनिमें सांवरीपै घहरै घनघोरघटा क्षितिछवैकै । सांवरी पामरी कीदै खुहीवलि सांवरेपैचलीसांबरीकै ४ ॥ दोहा-कारी निशि कारीघटा, कचरति कारेनाग । कारे कान्हरपै चली, अजब लगनकी लाग ॥४२॥ शुक्ल अभिसारिका ॥ कवित्त--सजि ब्रजचन्दपै चली यों मुख चन्द्र जाको, चन्द्र चांदनी को मुख मन्द सों करत जात ।