पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/११५

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अमिट स्मृति पाल्गुनी पूर्णिमा का चंद्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक-धारा का सृजन कर रहा था। एक माछोटा-सा बजरा वसन्त-पवन में आन्दोलित होता हुआ धीरे-धीरे बह रहा था। नगर का आनन्द-कोलाहल सैंकड़ों गलियों को पार करके गंगा के मुक्त वातावरण में सुनाई पड़ रहा था। मनोहरदास हाथ-मुँह धोकर तकिए के सहारे बैठ चुके थे। गोपाल ने ब्यालू करके उठते हुए पूछा बाबूजी, सितार ले आऊँ? आज और कल, दो दिन नहीं।—मनोहरदास ने कहा। वाह बाबूजी, आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही! नहीं गोपाल, मैं होली के इन दोनों दिनों में न तो सितार ही बजाता हूँ और न तो नगर में ही जाता हूँ। तो क्या आप चलेंगे भी नहीं, त्योहार के दिन नाव पर ही बीतेंगे, यह तो बड़ी बुरी बात यद्यपि गोपाल बरस-बरस का त्योहार मनाने के लिए साधारणत: युवकों की तरह उत्कंठित था; परन्तु सत्तर बरस के बूढ़े मनोहरदास को स्वयं बूढ़ा कहने का साहस नहीं रखता। मनोहरदास का भरा हुआ मुँह, दृढ़ अवयव और बलिष्ठ अंग-विन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था। मनोहरदास ने कहा-गोपाल! मैं गन्दी गालियों या रंग से भागता हूँ। इतनी ही बात नहीं, इसमें और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझे पचास बरस हो गए। गोपाल ने नगर में जाकर उत्सव देखने का कुतूहल दबाते हुए पूछा-ऐसा क्यों बाबूजी? . ऊँचे तकिए पर चित्त लेटकर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास ने कहना आरम्भ किया