पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/११७

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भीतर से भी उस सरला को कोई रंगीन बनाने लगा था। न जाने क्यों, क्या इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से ओत-प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसे सचेष्ट बनाए रहता, तब भी उसकी आँखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठतीं। पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपड़ों को दो-तीन बार ठीक किया, फिर पूछा-और कुछ चाहिए? मैं मुस्कराकर रह गया। उसे वसंत के प्रभाव में सब लोग वह सुस्वादु और सुगंधित ठंडई धीरेधीरे पी रहे थे और मैं साथ-ही-साथ अपनी आँखों से उस बालिका के यौनोन्माद की माधुरी भी पी रहा था। चारों ओर से नींबू के फूल और आमों की मंजरियों की सुगन्ध आ रही थी। नगरों से दूर देहातों से अलग कुएँ की वह छत संसार में जैसे सबसे ऊँचा स्थान था। क्षण-भर के लिए जैसे उस स्वप्न-लोक में एक अप्सरा आ गई हो। सड़क पर एक बैलगाड़ी-वाला बंडलों से टिका हुआ आँखें बन्द किए हुए बिरहा गाता था। बैलों को हाँकने की जरूरत नहीं थी। वह अपनी राह पहचानते थे। उसके गाने में उपालम्भ था, आवेदन था। बालिका कमर पर हाथ रखे हुए बड़े ध्यान से उसे सुन रही थी। गिरधरदास और रघुनाथ महाराज हाथ-मुँह धो आए; पर मैं वैसे ही बैठा रहा। रघुनाथ महाराज उजड्ड तो थे ही; उन्होंने हँसते हुए पूछा -क्या दाम नहीं मिला? गिरधरदास भी हँस पड़े। गुलाब से रँगी हुई उस बालिका की कनपटी और भी लाल हो गई। वह जैसे सचेत-सी होकर धीरे-धीरे सीढ़ी से उतरने लगी। मैं भी जैसे तन्द्रा से चौंक उठा और सावधान होकर पान की गिलौरी मुँह में रखता हुआ इक्के पर आ बैठा। घोड़ा अपनी चाल से चला। घंटे-डेढ़ घंटे में हम लोग प्रयाग पहुँच गए। दूसरे दिन जब हम लोग लौटे, तो देखा कि उस कुएँ के दालान में बनिए की दुकान नहीं है। एक मनुष्य पानी पी रहा था, उससे पूछने पर मालूम हुआ कि गाँव में एक भारी दुर्घटना हो गई है। दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समय नशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दंगा हो गया। वह बनिया भी उन्हीं में था। रात को उसी के मकान पर डाका पड़ा। वह तो मार ही डाला गया, पर उसकी लड़की का भी पता नहीं। रघुनाथ ने अक्खड़पन से कहा-अरे, वह महालक्ष्मी ऐसी ही रहीं। उनके लिए जो कुछ न हो जाय, थोड़ा है। रघुनाथ की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। मेरी आँखों के सामने चारों ओर जैसे होली जलने लगी। ठीक साल-भर बाद वही व्यापारी प्रयाग आया और मुझे फिर उसी प्रकार जाना पड़ा। होली बीत चुकी थी, जब मैं प्रयाग से लौट रहा था, उसी कुएँ पर ठहरना पड़ा। देखा तो एक विकलांग दरिद्र युवती उसी दालान में पड़ी थी। उसका चलना-फिरना असम्भव था। जब मैं कुएँ पर चढ़ने लगा तो उसने दाँत निकालकर हाथ फैला दिया। मैं पहचान गया—साल-भर की घटना सामने आ गई। न जाने उस दिन मैं प्रतिज्ञा कर बैठा कि आज से होली न खेलूँगा। वह पचास बरस की बीती हुई घटना आज भी प्रत्येक होली में नई होकर सामने आती है। तुम्हारे बड़े भाई गिरधर ने मुझे कई बार होली मनाने का अनुरोध किया, पर मैं उनसे सहर हो सका और मैं अपने हृदय के इस निर्बल पक्ष पर अभी तक दृढ़ हूँ। समझा न, गोपाल! इसलिए मैं ये दो दिन बनारस के कोलाहल से अलग नाव पर ही बिताता हूँ।