पृष्ठ:जहाँगीरनामा.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५५
संवत् १६६९।

अली मरदानखां बहादुर बहादुरीम लड़ा और घायल होकर पकड़ा गया। जब राजा भुरजी(१)के राज्य में पहुंचे जो बादशाहकी अधीनतामें था तो गनीम लौट गया। और अबदुल्लहखां गुजरातमें आया।

अबदुल्लहखांके लौटनेकी खबर सुनतेही राजा मानसिंह वगैरह भी रास्ते से लौटकर परवेजके कम्पमें चले आये जो बुरहानपुरके वास आदिलाबाद में था।

बादशाह लिखता है--जब यह समाचार आगरमें मेरे पास पहुंचे तो मेरा चित्त बहुत विक्षिप्त होगया। मैंने यह विचार किया कि आप जाकर इन खुदाके मारे हुए नौकरोंका पाप काट दूं। परन्तु शुभचिन्तक लोग सहमत न हुए और ख्वाजा अबुलहसनने प्रार्थना की कि उधरके कामोंको जैसा कुछ खानखानांने समझा है और दूसरा कोई नहीं समझा सकता। उसीको भेजना चाहिये। इस बिगड़ी हुई बाजीको सम्भाल कर गनीमसे समयके अनुसार सन्धि करले। फिर जो यथार्थ करना है की यह बात और हितैषियोंको भी जची और सबने यही सलाह दी कि खानखानांको भेजना चाहिये और अबुलहसन भी साथ जावे। निदान यह बात ठहर गई और दीवानोंने तय्यारी कर दी। खानखानां १७ उर्दीविहिश्त रविवार (बैसाख सुदी ६) को बिदा हुआ शाहनवाजखां अबुलहसन और कई सरदार उसके साथ गये। बादशाहने खानखानांका मनसब छः हजारी, शाहनवाजखांका तीन हजारी और दाराखांका दो हजारी कर दिया। छोटे बेटे रहमानदादको भी उसके योग्य मनसब मिल गया। खानखानांको सुन्दर सिरोपाव जड़ाऊ कटार खासा हाथी तलापर(२) सहित और इराकी घोड़ा मिला। उसके बेटों और साथियोंने भी यथायोग्य खिलअत और घोड़े पाये।


(१) यह बगलानेका राजा था।

(२) हाथीका गहना।