तंवत् १६७४ । ३१२ सम्व राज्य में भी मेरो प्यास नहीं बुझी तो मैं उन छोटे नालो खोलों में बाब होंठ उबोनेवाला था। वह मस्तकाही छिद जाय कि जो इस दरगाहमें न झुकाकर दूसरी जगह अकी। 'मैं जिस दिनसे निकला हूं आजतकाकी दिनचर्या एक बही में शिक्षता रहा हूं। उससे मेरा वृत्तान्त विदित होजावेगा।" उसका यह कहना और भी कपाका कारण हुआ। मैंने उसके लेखोंको अंगादार पढ़ा तो ज्ञात हुआ कि इस पर्यटनमें उसको बहुत कष्ट हुआ है। बहुधा पैदल फिरा है। खाना भी नहीं मिला है। इससे मेरा मन उस पर मेहरबान हुआ। दूसरे दिन मैंने अपने सम्मुख बुलाकर उसके हाथ पांवको बेड़ियां खुलवा दीं। खिलअत घोड़ा और १०००, खुर्चले वास्ते देकर उसका मनसब पहलेसे द्योढ़ा कर दिया। उसके ऊपर इतनी हाया और अनुग्रह को जिसका उसको कसी ध्यान भी न हुआ था। काशमौरको मरी। १७ वुधवार (फागुन सुदी ११) को ६ कोस चलकर गांव बारा- सिनोरमें काम्य लगा। काशमीरको मरीके विषयमें तो पहले लिखा हो गया। इस दिन वहांके समाचारलेखकको विनयपत्रिका पहुंची कि इन देशोंमें मरीका बड़ा जोर है। बहुतसे मनुष्य इस प्रकारसे मरते हैं कि पहले दिन सिरमें पौड़ा और ज्वर होता है नाकसे लहू बहुत निकलता है। दूसरे दिन प्राण निकल जाता है। जिस घरमें एक मनुष्य मरता है फिर उस घरके सब प्राणी मर जाते है। जो कोई रोगी या मृतकके पास जाता है वह भी रोगग्रस्त होजाता है। एक मनुष्य मर गया था उसको घासके ऊपर रखकार धोया था। एक गायने वह घास खाई और मर गई। उसका मांस कई कुत्तोंने खाया वह भी सब मरगये। यहांतक होगया है कि मरनेके भयसे बेटा बापके और बाप बेटेके पास नहीं जाता है। अनोखी बात यह है कि जिस बस्तीसे यह रोग फैला था वहां तीन हजार घर जल गये। बस विपदके पीछे तड़केही जो नगर
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