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जहांगीर बादशाह स० १६६४।

बहुधा लड़ाइयों में इसी दौलतखांकी सहायतासे फतह पाई थी। जब अकबर बादशाहने खानदेश और आसेरगढ़ विजय करके सुलतान दानियालको दिया तो दाजियालने दौलतखांको खानखानासे अलग करके अपनी सरकारका काम सौंपा। वह वहीं मरा। उसके दो बेटे मुहम्मदखां और पीरखां थे। मुहम्मदखां बापोके पोछे तुरन्त ही मर गया और पीरखांको बादशाहने बुलाकर यह मान सन्मान दिया। उसकी खातिर यहांतक मंजूर थी कि बड़े बड़े अपराध जो किसीको प्रार्थनासे भी माफ न किये जाते थे उसके कहनेसे क्षमा होजाते थे।(१)

बादशाह काबुलमें।

बादशाहका विचार अपने बाप दादाके देश तूरान जीतनेका था और चाहता था कि हिन्दुस्तानको निविघ्न करके सुसज्जित सेना जङ्गी हाथियों और पूरे कोष सहित उधर जाय। इसीलिये परवेज को रानाके ऊपर भेजा था और आप दक्षिण जानेके उद्योगमें था कि खुसरो प्रतिकूल होगया। न राणाकी लड़ाई फतह हुई न दक्षिणको जाना हुआ। खुसरोके पीछे लाहोर आना पड़ा उसके पकड़े जाने और कजलबाशोंको कन्धार छोड़ देनेसे छुटकारा हुआ तो अपने पुराने स्थान काबुलके देखनेको रुचि हुई। तब ७ जिल- हज (चैत सुदी ९) को लाहोरसे कूच करके दिलामेजवागमें जो रावी नदीके उस पार था डेरा किया और वहीं १९ फरवरदीन रविवार (चैत सुदी ११) को मेख(२) संक्रान्तिका उत्सव करके कई आदमियोंके मनसब बढ़ाये और ईरानके दूत हसनवेगको दस ह- जार रुपये दिये।


(१) इसी पीरखांको फिर फरजन्द खानजहांकी भी पदवी मिल गई थी। इसका वृत्तान्त आगे बहुत जगह आवेगा इस लिये यह मविस्तर वर्णन उसके घरानेका किया गया है। यह शाहजहां बादशाहसे बागी होकर जुझारसिंह बुन्देलेके हाथ से मारा गया।

(२) चंडू पञ्चांगमें मेख संक्रान्ति चैत सुदी १० को लिखी है।

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