जनक बात नहीं दीख पड़ती। ऐसा हिन्दू मुसलमानों, सिक्खों
और ईसाइयों को उदाहरण देता है और उसे इस बात से ढाढ़स
मिलता है कि उन लोगों में भी जात-पाँत है। इस बात का निश्चय
करने के लिए कि क्या अमुक समाज एक आदर्श समाज है, यह
प्रश्न नहीं पूछना चाहिए कि उस में समूह हैं या नहीं, क्योंकि समूह
तो सभी समाजों में मौजूद हैं। आदर्श समाज क्या है, इस का
निश्चय करने के लिए ये प्रश्न पूछे जाने चाहियें-वे व्यापार कितने
विभिन्न अंर बहुसंख्यक हैं,जिन में ये समूह जाने-बूझ कर भाग लेते
हैं ? दूसरे प्रकार के सङ्घों के साथ मिल कर वे कहाँ तक पूर्ण और
स्वतन्त्र रूप से काम करते हैं ? क्या उन समूहों और श्रेणियों
को पृथक-पृथक करने वाली शक्तियाँ उनको जोड़ने वाली शक्तियों
से संख्या में अधिक हैं ? इस समूह-जीवन का सामाजिक अर्थ
क्या समझा जाता है ? क्या इनका अलग-थलग रहना केवल
रिवाज और सुविधा के कारण है या यह धर्म की बात है ? इन
प्रश्नों के प्रकाश में ही हमें इस बात का निश्चय करना चाहिए
कि अहिन्दुओं में भी जात-पाँत वैसी ही है, जैसी कि हिन्दु-
ओं में। यदि आप इस दृष्टि से एक ओर मुसलमानों, सिक्खों
और ईसाइयों की जात-पाँतों को और दूसरी ओर हिन्दुओं की
जात-पॉतों को देखेंगे, तो आपको मालूम हो जायगा कि अहिन्दु-
ओं में जात-पाँत हिन्दुओं की जात-पॉत से मूलतः भिन्न है ।।
पहली बात यह है कि हिन्दुओं में ऐसे बन्धनों का सर्वथा अभाव है, जो उनको ज्ञानतः इकट्ठे रखते हो । समाज की शक्ति संपर्क की बातों और समाज में विद्यमान विभिन्न समूहों में पारस्परिक क्रिया की सम्भावनाओं की विधमानता पर निर्भर करती है । इन को कार्लायल “आंगिक सूत्र” कहता