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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१०३

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उनमें कविसमयसिद्ध उपमान ही अधिक मिलते हैं और इन परंपरागत उपमानों में कुछ अवश्य ऐसे हैं जो प्रसंग के अनुकूल भाव को पुष्ट करने में सहायक नहीं होते, जैसे हाथी की सूंड; सिंहनी और भिड़ की कमर। सुंदरी नायिका की भावना करते समय सिंहनी, भिड़ और हाथी सामने आ जाने से उस भावना को पुष्टि में सहायता के स्थान पर बाधा ही पहुँचती है। ऐसे उपमानों को भी जायसी ने छोड़ा नहीं है। बल्कि यों कहिए कि सादृश्य का आरोप करने में फारसी के जोर पर वे एक प्राध जगह और आगे भी बढ़ गए हैं। भारतीय काव्यपद्धति में उपमान चाहे उदासीन हों, पर भाव के विरोधी कभी नहीं होते। 'भाव' से मेरा अर्थ वही है जो साहित्य में मिल जाता है। 'भाव' का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्यबोध मात्र नहीं है बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल अवस्थाविशेष है जिसमें शरीरवृत्ति और मनोबत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिए। उसके स्वरूप के अंतर्गत अपनी हानि या अपमान की बात का तात्पर्यबोध, उग्र वचन और कर्म की प्रवृत्ति का वेग तथा त्योरी चढ़ना, आँखें लाल होना, हाथ उठना, ये सब बातें रहती हैं। मनोविज्ञान की दृष्टि से इन सबके समष्टिविधान का नाम क्रोध का भाव है। रौद्र रस के प्रसंग में कवि लोग जो उपमान लाते हैं वे भी संतापदायक या उग्र होते हैं, जैसे अग्नि। क्रोध से रक्तवर्ण नेत्रों की उपमा जब कोई कवि देगा तब अंगार आदि की देगा, रक्त कमल या बंधूकपुष्प की नहीं। इसी प्रकार शृंगार रस में रक्त, मांस फफोले हड़ी आदि का बीभत्स दृश्य सामने माना अरुचिकर प्रतीत होता है। पर जहाँ केवल 'तात्पर्य' के उत्कर्ष का ध्यान प्रधान रहेगा--खयाल की बारीकी या बलंदपरवाजी पर ही नजर रहेगी--वहाँ भाव के स्वरूप का उतना विचार न रह जायगा। फारसी की शायरी में विप्रलंभ शृंगार के अंतर्गत ऐसे वीभत्स दृश्य प्रायः लाए जाते हैं। इस न बात का उल्लेख हो चुका है कि जायसो में कहीं कहीं इस प्रकार के वर्णन मिलते हैं; जैसे, 'विरह सरागन्हि भूजै माँसू। ढरि ढरि परहि रकत कै आँसू'। इसी प्रकार नखशिख के प्रसंग में हथेलो के वर्णन में जो यह हेतूस्प्रेक्षा की गई है वह भी कोई रमणीय रुचिकर दृश्य सामने नहीं लाती--

हिया काढ़ि जनु लीन्हेसि हाथा। रुहिर भरी अँगुरी तेहि साथा।।

यदि कवि सच्चा है, शेष सृष्टि के साथ उसके हृदय का पूर्ण सामंजस्य है, उसमें सष्टिव्यापिनी सहृदयता है तो उसके सादृश्यविधान में एक बात और लक्षित होगी। वह जिस सदृश वस्तु या व्यापार की ओर ध्यान ले जायगा कहीं कहीं उससे मनुष्य को और प्राकृतिक पदार्थों के साथ अपने संबंध की बड़ी सच्ची अनुभूति होगी। विरहताप से झुलसी और सूखी हुई नागमती को जब प्रिय के प्रागमन का प्राभास मिलता है तब उसकी दशा कैसी होती है--

 भुइँ दहि असाढ़ पलुहाई। परहि बद औ सौंध बसाई॥
ओहि भाँति पलुही सुख बारी। उठी करिल नइ कोंप सँवारी।।

इसमें मनुष्य देखता है कि जिस प्रकार संताप और आह्लाद के चिह्न मेरे शरीर में दिखाई पड़ते हैं वैसे ही पेड़ पौधों के भी। इस प्रकार उनके साथ अपने संबंध की अनुभूति का उदय उसके हृदय में होता है। ऐसी अनुभूति द्वारा मानवहृदय का