सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ११६ )


आप ही तो सब कुछ हुआ, पर माया के भेद के अनुसार एक ओर तो ईश्वर (सर्वशक्तिमान् विधायक और शासक) रूप में व्यक्त हुआ और दूसरी ओर जीव रूप में, जो उस ईश्वर को सिर नवाता है।

ब्रह्म और जीव आत्मा और परमात्मा की एकता इस प्रकार भी समझाई जाती है कि 'जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में है।' इस तथ्य को लेकर साधना के क्षेत्र में एक विलक्षण रहस्यवाद की उत्पत्ति हुई जिसकी प्रेरणा से योग में पिंड या घट के भीतर ही ब्रह्म का एक विशेष स्थान निर्दिष्ट हुआ और उसके पास तक पहुँचानेवाले विकट मार्ग (नाभि से चलकर) की कल्पना की गई। जायसी ने इस रहस्यमयी भावना को स्वीकार किया है—

सातौ दीप नवौ खंड, आठौ दिशा जो आहि।
जो बरह्मंड सो पिंड है, हेरत अंत न जाहिं॥

और एक पूरा रूपक बाँधकर पिंड को ही ब्रह्मांड बनाया है—

टा टुक झाँकहूँ सातौ खंडा। खंड खंड लखहु बरह्मंडा
पहिल खंड सनीचर नाऊँ। लखि न अँटकु पौरी महँ ठाऊँ॥
दूसर खंड बृहस्पति तहँवाँ। काम दुवार भोगघर जहँवाँ॥
तीसर खंड जो मंगल मानहुँ। नाभि कँवल महँ ओहि अस्थानहु॥
चौथ खंड जो आदित अहई। बाईं दिसि अस्तन महँ रहई॥
पाँचव खंड शुक्र उपराहीं। कंठ माहँ ओ जीभ तराहीं॥
छठएँ खंड बुद्धि कर बासा। दोउ भौंहन्ह के बीच निवासा॥

सातवँ सोम कपार महँ, कहा जो दसवँ दुवार।
जो वह पवँरि उघारै, सो बड़ सिद्ध अपार॥

इसमें जायसी ने मनुष्य शरीर के पैर, गुह्येंद्रिय, नाभि, स्तन, कंठ, दोनों भौहों के बीच के स्थान और कपाल को क्रमशः शनि, वृहस्पति, मंगल, आदित्य, शुक्र, बुध और सोमस्वरूप कहा है। एक और ध्यान देने की बात यह है कि कवि ने जिस क्रम से एक दूसरे के ऊपर ग्रहों की स्थिति लिखी है वह सूर्यसिद्धांत आदि ज्योतिष के ग्रंथों के अनुकूल है।

तत्व दृष्टि से 'पिंड और ब्रह्मांड की एकता' के निश्चय पर पहुँच जाने पर फिर उसी के अनुकूल साधना मार्ग सामने आता है, जो योगशास्त्र का विषय है। पतंजलि ने विभूतिपाद में नाभिचक्र, कंठकप, कूर्मनाड़ी और मूर्धज्योति का ही उल्लेख किया है, पर हठयोग में काव्यव्यूह का विशेष विस्तार से वर्णन है जिसकी चर्चा पहले कर आए हैं। मूर्धज्योति या ब्रह्मरंध्र को ही जायसी ने 'दसवाँ द्वार' कहा है जहाँ वृत्ति को ले जाकर लीन करने से ब्रह्म के स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है। जायसी ने वेदांत के सिद्धांतों के साथ हठयोग की बातों का भी समावेश क्यों किया, इसका कारण उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया होगा। तत्वज्ञान के पश्चात् उसके अनुकूल साधना होनी चाहिए। जबकि यह सिद्ध हो गया कि जो ब्रह्म विश्व की आत्मा के रूप में ब्रह्मांड में व्याप रहा है वही मनुष्य के पिंड या शरीर में भी है तब शरीर के भीतर ही उसके साक्षात्कार की साधना का निरूपण होना ही चाहिए।