सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १३१ )


इनमें से प्रकृत काव्य हम केवल पिछली दो उक्तियों में ही मान सकते हैं, प्रथम में केवल काव्याभास मानेंगे। यहाँ पर हमें प्रयोजन प्रथम और द्वितीय प्रकार की उक्ति से है। ऊपर बिहारी और रहीम के जिन दोहों का उल्लेख हुआ है वे जनसमाज से स्वीकृत साधारण तथ्यों को एक अनूठे ढंग से सामने रखते हैं। अब यह देखिए कि इनमें काव्य का प्रकृत स्वरूप किसमें है, किसमें नहीं। किसी तथ्य का कथन जब काव्यपद्धति द्वारा किया जाता है तब उसकी सत्यता का निश्चय कराना विवक्षित नहीं रहता, बल्कि उस तथ्य के प्रति किसी स्वाभाविक भाव के अनुभव को ‘तीव्र करना—जैसे, 'कनक कनक तें सौगुनी' वाले दोहे में कवि धन के बुरे प्रभाव के कारण उसके प्रति श्रोता की तिरस्कार बुद्धि जाग्रत करना चाहता है, इसलिये धतूरे का उल्लेख करता है। इसी प्रकार 'बड़े पेट के भरन में' वाले दोहे में असंतोषजन्य दीनता के प्रति जो जुगुप्सा विवक्षित है वह हाथी ऐसे बड़े जानवर का दाँत निकलना देखकर उत्पन्न हो सकती है। इन दोनों उक्तियों की तह में कुछ भाव निहित हैं अतः हम इन्हें चमत्कारप्रधान काव्य कह सकते हैं। इस प्रकार का काव्य रसप्रधान काव्य की कोटि तक तो नहीं पहुँच सकता, पर काव्य कहला सकता है।

जिसमें भाव का पता देनेवाला अथवा भाव जाग्रत करनेवाला कोई शब्द या वाक्य अथवा प्रस्तुत प्रसंग के प्रति किसी प्रकार का भाव उत्पन्न कराने में समर्थ वस्तु या व्यापार न हो, केवल दूर की सूझ या शब्दसाम्पमूलक विलक्षणता हो वह उक्ति काव्याभास होगी। जैसे, मिस्सी लगे काले दाँतों को देखकर यह कहना कि 'मनो खेलत हैं लरिका हबसी के', दूर की सूझ या अनूठापन चाहे सूचित करे पर सौंदर्य का भाव उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। दूर की सूझ दिखाने के लिये लोगों ने 'भानु मनो सनि अंक लिए' तक कह डाला है पर उनकी यह सूझ वास्तव में दूर की नहीं है—उन पोथियों तक की है जिनमें ग्रहों का रंग लिखा रहता है। ऐसी भद्दी उक्तियाँ भी सूक्ति कहलाती हैं। सूक्ति कहलाएँ, पर इनका उत्तम काव्य कहा जाना तो रोकना चाहिए।

तथ्यवर्णन में अब रहीम का 'ज्यों रहीम गति दीप की' वाला दूसरा दोहा लीजिए। इसमें कही हुई बात यह है कि कुपुत्र जबतक बच्चा रहता है तभी तक अच्छा लगता है, जब बढ़ता है तब दुःखदायी हो जाता है। 'बारे' और 'बाढ़े' शब्दों के श्लेष के आधार पर ही कवि ने दीपक का उल्लेख किया है। पर इस दीपक के व्यापार की योजना कुपूत्र के प्रति विरक्ति आदि के अनुभव में कुछ जोर नहीं पहुँचाता।अतः इन दोहों में कोरा चमत्कार ही कहा जा सकता है। इसी चमत्कार के कारण हम इस उक्ति को कोरा तथ्यकथन न कहकर काव्याभास कहेंगे। काव्य का बाहरी रूपरंग इसमें पूरा है, पर प्राण नहीं है। रहीम के कुछ ही दोहे ऐसे मिलेंगे। उनके दोहे भाविकता से भरे हुए हैं। पर नीति के अधिकांश दोहे (जैसे वृंद के) काव्याभास ही के अंतर्गत आ सकते हैं।

यहाँ पर सूक्ति के अंतर्गत हम जायसी के उन्हीं कथनों को लेते हैं जिनमें किसी तथ्य का प्रकाश है। इन कथनों के संबंध में हम यह कह सकते हैं कि इनमें अधिकतर चमत्कार के साथ भावुकता भी है। जैसे, बुढ़ापे पर ये उक्तियाँ लीजिए—