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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/१९८

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१६
पदमावत

राजसभा पुनि देख बईठी। इंद्रसभा जनु परि गै डीठी॥
धनि राजा असि सभा सँवारी। जानहु फूलि रही फुलवारी॥
मुकुट बाँधि सब बैठे राजा। दर निसान नित जिन्हके बाजा॥
रूपवंत, मनि दिपै लिलाटा। माथे छात, बैठ सब पाटा॥
मानहुँ कँवल सरोवर फूले। सभा क रूप देखि मन भूले॥
पान कपूर मेद कस्तूरी। सुगंध बास भरी रही अपूरी॥
माँझ ऊँच इंद्रासन साजा। गंध्रबसेन बैठ तहँ राजा॥

छत्र गगन लगि ताकर, सूर तवै जस आप।
सभा कँवल अस बिगसै, माथे बड़ परताप॥३२॥

साजा राजमँदिर कैलासू। सोने कर सब धरति अकासू॥
सात खंड धौराहर साजा। उहै सँवारि सकै अस राजा॥
हीरा ईंट, कपूर गिलावा। औ नग लाइ सरग लै लावा॥
जावत सबै उरेह उरेहे। भाँति भाँति नग लाग उबेहे॥
भा कटाव सब अनवत भाँती। चित्र कोरि कै पाँतिहि पाँती॥
लाग खंभ-मनि-मानिक जरे। निसि दिन रहरिं दीप जनु बरे॥
देखि धौरहर कर उँजियारा। छपि गए चाँद सुरुज औ तारा॥

सुना सात बैकुंठ जस तस, साजे खँड सात।
बेहर बेहर भाव तस, खंड खंड उपरात॥२४॥

बरनौं राजमंदिर रनिवासू। जनु अछरीन्ह भरा कविलासू॥
सोरह सहस पदमिनी रानी। एक एक तें रूप बखानी॥
अति सुरूप औ अति सुकुवाँरी। पान फूल के रहहिं अधारी॥
तिन्ह ऊपर चंपावति रानी। महा सुरूप पाट-परधानी॥
पाट बैठि रह किए सिंगारू। सब रानी ओहि करहिं जोहारू॥
निति नौरंग सुरंगम सोई। प्रथम बैस नहिं सरवरि कोई॥
सकल दीप महँ जेती रानी। तिन्ह महँ दीपक बारह-बानी॥

कुँवरि बतीसो लच्छनी, अस सब माँह अनूप।
जानत सिंघलदीप के, सबै बखानैं रूप॥२५॥



(२३) दर = दरवाजा। मेद = मेदा, एक प्रकार की सुगंधित जड़। तवै = तपता है। (२४) उरेह = चित्र। उबेहे = चुने हुए, बीछे हुए। कोरिकै = खोदकर। बेहर बेहर = अलग अलग। (२५) बारहबानी = द्वादशवर्णी, सूर्य की तरह चमकनेवाली।