पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३१७

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नागमती वियोग खंड
१३५

चैत बसंता होइ धमारी। मोहिं लेखे संसार उजारी॥
पंचम विरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौं बन ढारै।
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ, टेंसू बन राता॥
बौर ग्राम फरै अब लागे। अबहँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फलीं बनसपती। मधकर घमहि सँवरि मालती।
मोकहँ फल भए सब काँटे । दिस्टि परत जस लागाह चाँटे।
फिर जोवन भए नारंग साखा । सुग्रा बिरह अब जाइ न राखा ॥

घिरिनि परेवा होइ पिउ ! ग्राउ वेगि परु टूटि।
नारि पराए हाथ है, तोहि बिन पाव न छूटि ।। १३ ॥
भा बैसाख तपनि अति लागी। चोप्रा चीर चंदन भा आगी॥
सूरुज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौंह रथ हाँका।
जरत बजागिनि करु, पिउछाहाँ। पाइ वझाउ, अँगारन्ह माहाँ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करु फुलवारी॥
लागिउँ जरै, जरै जस भारू। फिर फिर भंजेसि, तजेउँन बारू॥
सरवर हिया घटत निति जाई। टक टक होइ कै बिहराई॥
बिहरत हिया करहु, पिउ ! टेका। दीठि "दवॅगरा मेरवहु एका ॥

कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ ।
कबहुँ बेलि फिरि पलिहैं, जो पिउ सींचै आइ ।। १४॥

जंठ जरै जग, चलै लवारा। उठहिं बवंडर परहिं अंगारा॥
बिरह गाजि हनवत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा॥
चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी।
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क ागि कठिन अति मंदी।
उठै आगि ौ पावै आँधी। नैन न सूझ, मरौ दुःख बाँधी॥
अधजर भइउँ, माँसु तन सूखा । लागेउ बिरह काल होइ भूखा॥
मासु खाइ सब हाडन्ह लागे। अबहँ पाउ; आवत सुनि भागे।


पंचम = कोकिल का स्वर या पंचम राग । (वसंत पंचमी माघ में ही हो जाती है इससे 'पंचमी' अर्थ नहीं ले सकते) । सगरों-सारे। बड़ि उठे...पाता= नए पत्तों में ललाई मानों रक्त में भींगने के कारण है। घिरिन परेवा%D गरहबाज कवतर या कौडिल्ला पक्षी। नारि - (क) नाडी, (ख) स्त्रा। (१४) हिवंचल ताका = उत्तरायण हा। बिरह बजागि......हाँका = सूर्य तो सामने से हटकर उत्तर की ओर खिसका हा चलता है, उसके स्थानपर विरहाग्नि ने सीधे मेरी ओर रथ हाँका। भारू-भाड। सरवर हिया बिहराई तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहत से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। दवँगरा = वर्षा के प्रारंभ का झड़ी। मेरवह एका = दरारें पड़ने के कारण जो खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक कर दो। बड़ी सुंदर उक्ति है। (१५) लुवार = लू । गाजि= गरजकर। पलंका = पलंग। मंदी-धीरे धीरे जलानेवाली।