पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३१९

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नागमती वियोग खंड
१३७

जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा । करै मेराव सोइ गौरवा॥
कोइल भई पुकारति रही। महरि पुकारै 'लेइ लेइ दही'॥
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा। हिरदय पैठि बिरह कटनंसा॥

जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात ।
सोई पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात ।। १८ ॥

कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत आँसु घुघुची बन बोई॥
भइ करमुखी नैन तन राती । को सेराव ? बिरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइ बनबासी। तहँ तहँ होइ घुघुचि के रासी॥
बुद ब द महँ जानहँ जीऊ। गंजा गजि करै 'पिउ पीऊ' ॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोह बडि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहू।
देखौं जहाँ होइ सोइ राता । जहाँ सो रतन कहै को बाता॥

नहिं पावस अोहि देसरा, नहिं हेमंत बसंत।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सूनि आवै कंत॥१६॥


जाहि बया = संदेश लेकर जा और फिर पा (बया = आ--फारसी) । कठलवा = गले में लगानेवाला । गौरवा = (क) गौरवयक्त, बड़ा; (ख) गौरा पक्षी। दही = (क) दधि, (ख) जलाई। पेड = पेड पर। जल-जल में । तिलोरी = तेलिया मैना। कटनंसा = (क) काटता और नष्ट करता है, (ख) कटनास या नीलकंठ । निपात = पत्रहीन । (१६) घुघुची=गंजा। सेराव = ठंढा करे । बिंब = बिंबाफल ।