रत्नसेन के कष्टों की सूचना मिली है, तब उसका हृदय उसकी ओर आकर्षित हुआ है; अतः पद्मावती के हृदय में पहले दया का भाव ही स्वाभाविक है। पर उर्वशी और पुरूरवा का प्रेम आरंभ ही से सम था, केवल एक दूसरे के प्रेम का परिज्ञान नहीं था। आगे चलकर रत्नसेन जो हर्ष प्रकट करता है, वह तुल्यानुराग पर है। राजा रत्नसेन को जब सूली देने ले जा रहे थे तब हीरामन पद्मावती का यह सँदेसा लेकर आया—
काढ़ि प्रान बैठी लेइ हाथा। मरै तौ, मरौं, जिऔं एक साथा॥
इतना सुनते ही रत्नसेन के हृदय से सूली आदि का सब ध्यान हवा हो जाता है, वह आनंद में मग्न हो जाता है—
सुनि सँदेस राजा तब हँसा। प्रान प्रान घट घट महँ बसा॥
प्रेम के प्रभाव से प्रेमी की वेदना मानो उसके हृदय के साथ प्रिय के पास चली जाती है। अतः जब वह प्रेम चरम सीमा को पहुँच जाता है तब प्रेमी तो दुःख की अनुभूति से परे हो जाता है और उसकी सारी वेदना प्रिय के मत्थे जा पड़ती है। समवेदना का यही उत्कर्ष तुल्य प्रेम है—
जीउ काढ़ि लेइ तुम अपसई। वह भा कथा, जीव तुम भई॥
कया जो लाग धूप औ सोऊ। कया जान जान पै जीऊ॥
भोग तुम्हार मिला ओहि जाई। जो ओहि विथा सो तुम्ह कहँ आई॥
योगियों के पर-काय-प्रवेश का सा रहस्य समझना चाहिए—
'अस वह जोगी अमर भा, पर काया परवेस।'
प्रेम की प्राप्ति से दृष्टि आनंदमयी और निर्मल हो जाती है। जो बातें पहले नहीं सूझती थीं वे सूझने लगती हैं, चारों ओर सौंदर्य का विकास दिखाई पड़ने लगता है। पद्मावती की प्रशंसा सुनते ही जो प्रेम रत्नसेन के हृदय में संचरित होता है उसके प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करता है—
सहसौ करा रूप मन भूला। जहँ जहँ दीठ कँवल जनु फूला॥
तीनि लोक चौदह खँड, सबै पर मोहिं सूझि।
प्रेम छाँड़ि नहीं लीन किछु, जौ देखा मन बूझि॥
प्रेम का क्षीरसमुद्र अपार और अगाध है। जो इस क्षीर समुद्र को पार करते हैं उसकी शुभ्रता के प्रभाव से 'जीव' संज्ञा को त्याग शुद्ध आत्मस्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं—'जो एहि खीर समुद्र महँ परे। जीव गँवाइ, हंस होइ तरे।' फिर तो वे 'बहुरि न आइ मिलहि एहि छारा'।
प्रेम की एक चिनगारी यदि हृदय में पड़ गई और उसे सुलगाते बन पड़ा तो फिर ऐसी अद्भुत अग्नि प्रज्वलित हो सकती है जिससे सारे लोक विचलित हो जायँ—
मुहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि गगन डेराइ।
धनि बिरही औ धनि हिया, जहँ अस अगिनि समाइ॥