पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/२०७

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अथर्ववेद । अथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १८५ सूत्रसे हैं. इस परिभाषानुसार सूत्रमै हर जगह संहितामें के लिये हुए नहीं हैं। कौ० ६३७. में सूक्तको उद्देश कर पूर्व शब्द आया है। दारिलाने एक छोटे से प्रतीकके लिये ( १६,५६) इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कौशिक | सीरसूक्तों का सकल पाठ दिया है। यह एक अथर्वको प्राचीन प्रतिका सूत्र है तथा प्राचीन अद्भुत बात है। ऊपर दिखाया गया है कि कौशिक प्रति शौनकीय है और यह कौशिक वैतान तथा के अथर्व सूत्रके नामसे संबोधित किये हुए पतिशाख्य इन तीनों ही सूत्रोकी संहिता है। भागमें १४वे काण्ड को एक भी श्रवतरण प्रतीक इन दोनों संहिताओमें मुख्य साम्य यह है कि में भी नहीं दिया है। इस शाखा की तैय्यार की 'सम्बोधनके अन्तमें आनेवाला श्री इत्यादि स्वरमें हुई तथा मानी संहिता और स्पष्ट रूपसे अन्य सन्धि नहीं की है। स्थानसे आये हुए मन्त्र समूह के बीच का स्थान यह बात स्पष्ट है कि कौशिक सूत्रवाली अथ- | कौशिक सूत्रमें १४ वे काण्ड का होगा। रॉथके वण संहिताकी प्राचीन प्रति अस्तित्वमें अवश्य मतानुसार पिप्पलाद शाखा भर में इस प्रकार १६ थी क्योंकि उसमेंके बहुतसे सूक्तोका अवतरण | वे काण्ड का विषय फैला हुश्रा है यह माना जा प्रतीकों में किया है। इसके अनुसार जो यज्ञ सकता है कि इस काण्डका विषय अथर्ववेदकी याग आदि करे उसकोसंहिता पाठ श्राना आवश्यक सब शाखाओंके सम्प्रदायोंको मालूम था और वेद है १६ वै कांडका आगे विचार किया गया है। पहले संस्करणके समय निकाल दिया गया था उसे छोड़ देनेपर वाकीके वेदोंके सूत्रोंमें शुरूसे परन्तु बादमें उचित मालूम पड़नेपर मूलवेदमें अन्त तक दी हुई ऋचायें बहुत ही थोड़ी हैं, मिला लिया गया होगा। कौशिक ६.१७ अथर्व ६. ५.२, कौ० १०६.७, कौशिक सूत्रके विचार संशययुक्त दिखाई देते हैं। ७५, अथर्व १४, १, १३ अथर्व ७, ४८, २ को उसकी शाखाके कुछ मन्त्र इतने परिचितहैं कि उनका ६७.६ में अथर्व ८. २.६; कौ० इत्यादि है। अन्त निदर्शन केवल प्रतीकसे ही करने पर काम चल जाता के उदाहरणके अतिरिक्त पहले तीन उदाहरणों में है, और कुछ मन्त्र ऐसे हैं जिनके बारेमें शुरूसे अंत मन्त्र संहितासे जान बूझकर लिया नहीं है, यह तक देना पड़ता है। वादके अथर्व साहित्यमें इन केवल आकस्मिक है कि शुरूसे अन्त तक मन्त्र मन्त्रीका परिचय दृढ़ मालूम पड़ता है । अथर्ववेदकी ऋचाओंसे कुछ मिलते हैं। इस परिशिष्टमें १६ वाँ काँड बाकी के अथर्ववेद के प्रकारकी स्थिति विभिन्न शाखाओके मन्त्रोंकी समान नहीं माना गया है और उसीके अवतरण तुलना करते समय हमेशा उत्पन्न होती है। विशेषतः बार बार आते हैं, उदाहरणार्थ १६-७- कौशिक सूत्रमे १५ तथा २० वे कांड सदाके लिये नक्षत्र कल्प १० में लिया है, १६.१ नक्षत्र २६ तथा निकाल दिये गये हैं उसमेंका १५ वाँ कांड तो अथर्व परिशिष्टमै ४, ४, ६, २ में लिया है । इत्यादि अव्यवहार्य तथा रूपकमय स्वरूपके लिये व्रात्यग्रंथ अथर्व-परिशिष्ट ३५ की गणमालामें १६ वे होनेके कारण निकाला होगा; और बीसवाँ इन काँडके बहुतसे मन्त्र अवतरण करके लिये हैं। सूत्रोंमें रचे जानेके बाद संहितामें मिलाया गया हिले बँटने एक ऐसा प्रश्न उपस्थित किया होगा, अथवा उसका श्रौतसे स्पष्टरूपसे सम्बन्ध है कि क्या इन सूत्रों के पूर्ण निरीक्षणसे ऐसा कहा होनेके कारण वह निकाल दिया गया होगा। जा सकता है कि एक बार मंत्र अथवा सूत्र जिस दूसरी कल्पना ही अधिक सम्भवनीय मालूम स्वरूपमें संहितामे आये हैं उससे वे कभी भी भिन्न पड़ती है ष्टोमयज्ञके सूत्रोंके लिये तथा स्तोत्रोके स्वरूपमें होंगे? इस प्रश्न पर भी विचार करना लिये कुछ अपवाद छोड़कर वैतान सूत्रमें २० वे चाहिये । सामान्यतः ऋचानोके शब्द तथा सूतों कांड का उपयोग किया है। की ऋचाओं की संख्या अन्य अन्य क्रमकी दृष्टि इस सूत्रसे १९वे कांडका जो संबंध है वह विशेष से सूक्तोंमें आये हुए मंत्र तथा सूक्त संहिताके ध्यानदेने योग्य है । इसके बहुतही थोड़े मन्त्रोंका अनुसार है, पर इसके संबन्धमे आगे दिया हुआ अवतरण प्रतीकोंने किया है। जैसे कौ० ६,३७, प्रमाण भी ध्यान रखने योग्य है । जब कोई अथर्व ४५. १७; और ६६. २९.मैं १६ १.५२. १, कौ० ६.३७ सूत स्पष्टरूपसे अनेकावयन घटित रूपका होता में १६.५६. १: कौ० ६६, में १६।३०. १ को ५७।। है अर्थात् संहिताकारोंने जब संहिता बनाने के १६ में १६। ६४,१ कौ० १३६, १० में १६। ६८, समय बहुतसे सूक्तों को मिला कर एक सूक्त बनाया १, बाकीके उन्नीसवे काण्डके अवतरण सकल पाठ | हो तब सूक्तकारोंने ऐसे सूक्तोंके प्रत्येक के सूत्रोंमें दिये हुए मन्त्र हैं। इसलिये ये शौनकीय अवयव ध्यान में रखकर उसका योग्य स्थानमें