पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/४६

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पीनर भी आ गया। मतलब यह कि अम्बाला छावनी में यह काफी खुहान थी कि एकाएक न जान मुदावरता के दिल में क्या समाई वि उमन दिल्ली जाने की ठान ली। सुलताना कसे इनकार परती जबकि खुदावा या वह अपने लिए बडा गुभ मानती थी। उमन सुशी-खुशी दिल्ली जाना मान लिया, बल्यि उमो यह भी मोचा कि इनने पडे पाहर में, जहालाट माहव रहन हैं, उसया पया और भी चलेगा। अपनी महे- लिया स वह दिल्ली की प्रशसा सुन चुकी थी। फिर वहा हजरत निजामुद्दीन प्रौलिया की दरगाह भी थी जिमके प्रति उसके दिल में बड़ी श्रद्धा थी। अतएव जल्दी-जल्दी घर का भारी सामान बेच नाचकर वह सुदाररस के साथ दिल्ली आ गई । यहा पहुचकर खुदावर ने बीस रपये मामिर पर यह पतंट लिया, जिसम दोना रहने लगे। ए ही ढग वे नय मवानो की लम्बी सी पकिरा मडा के साथ- साथ चली गई थी-म्युनिसिपल कमेटी न शहर का यह भाग विशेष स्पस वेश्यामोरे लिए मुररर कर दिया था ताकि वे शहर में जगह जगह अपने अड्डे न बनाए । नीचे दुकानें थी और ऊपर दोमजिना रिहाददी परट । सारी इमारतें चूकि एक ही डिजाइन की बनी हुई थी, इमलिए शुरू गुरू मे सुलताना को अपना फ्लैट ढूढने में बहुन कठिनाई हुई थी, लेकिन फिर जब नीचे के लाण्डरीवाले ने अपना भारी-भरकम बोड पर लटका दिया तो उसे एक पक्की निशानी मिल गई.-महा मले कपडा की धुलाई की जाती है यह बोड पढते ही वह अपना फ्लैट तलाश कर लिया करती थी। इसी प्रकार उसने और भी बहुत सी निशानिया यापम पर ली थीं। उदाहरणन जहा बडे-बडे अक्षरा में 'कोयले की दुका' निषा हुमा था, वहा उसकी महेलो हीरावाई रहती थी, जो कभी-कभी रेडियो पर म गाने जाती थी। जहा 'शुरुफा (सज्जनी) के पाने का प्राला इतिजाम है' लिया था, वहा उसकी सहेली मुख्तार रहनी यो । निवाड के वारखान के ऊपर अनवरी रहती थी, जो उमो वारसाने के सेठ पास 'मुलाजिम थी। सठ साहब का चूकि रात के समय अपन कारखाने की देखभाल करली होती थी, इसलिए वे अन- वर्ग के पास रहते थे। दुकान खोलत ही ग्राहक थोडे ही आते हैं--जव काली सलवार/47