जैतपुर नरेश महाराज पारीछत सायंकाल को एक स्थान
पर बैठते, जहाँ से सर्वसाधारण के श्राने जाने का रास्ता था।
दरबारी लोग भी प्रा डटते, चुहल-पहल होती, ठाकुर कवि
भी मौके मौके से अपनी सद्य कविता सुना कर महाराज को
प्रसन्न करते । एक महाजन की बहू शौचादि क्रिया को उस
रास्ते से आया जाया करती। परन्तु नवयौवना होने पर भी
अन्य नवोदाओं की तरह यह चपल न थी। बड़ी गंभीरता के
साथ सिर निहुराये यूंघट काढ़े जाया आया करती । राजाओं
के उबारियों में सब प्रकार के मनुष्य होते ही हैं । उस युवती
के रूप, गुण और विद्या की प्रशंसा एक बरबारी की श्रवणे-
न्द्रिय तक पहुँच चुकी थी। अतएव उसके रूप देखने की उसे
बड़ी उत्कंठा थी। यह बात महाराज पारीछत को भी बात थी।
एक दिन सबके सामने उस दरबारी ने ठाकुर से कहा कि
कवि जी यदि अपनी कविता के बल से इस स्त्री की ष्टि
भपनी समाज की ओर आकर्षित कीजिए तो जानें कि आप
सच्चे कवि हैं । दूसरे दिन जब वह स्त्री उस रास्ते से निकली
तब ठाकुर ने यह सवैया उच्च स्वर से पढ़ा-
आंखन देखत ध्यान में बोलत नेह बढ़ाये नितै आनित जा। चंदमुखी यह सोच बिहायकै मानी खुसी अभिमानी कितै जा॥ ठाकुर छैल छबीले छिपे कहुँ सौतिन माहि सुहाग जितै जा। दैजा दिखाईरीकैजा निहाल बितैजावियोग चितैजाचितैना॥ इस सवैया की विद्युत् शक्ति ने उसे उस ओर राष्टिपात करने के लिये विवश कर दिया। समाज की ओर देख कर