चौचदहाई जरै ब्रज की जे परायो बनो हर भाँति बिगाएँ ।
काहू की बेटी बहून की धैरू किते घर जाय कमंध से पाएँ ।
ठाकुर या विसवास की हौस न आठहू गांठ रही है हमारे ।
बे करे पैया करें करनी करि आवै कहूँ तो कहा कर डा॥५३॥
दिल साँचो लगै जेहिको जेहिसों तेहिको तितही पहुँचावत है।
बलि हंस चुनै मुकताहल को अरु चातक स्वाति को पावत है।
कवि ठाकुर यो निजु भेद सुनो अरुझावत सो सुरझाधत है।
परमेसुर की परतीत यही मिल्यो चाहत ताहि मिलावतहै ।
गति मेरी यही निसबासर है चित तेरी गलीन के गाहने है।
चित कीन्हो कठोर कहा इतनो अरी तोहिं नहीं यह चाहने है।
कह ठाकुर नेक नहीं दरसी कपटीन को काह सराहने है।
मन भावे सुजान सोई करियो हमैं नेह को नातो निबाहने है ॥
पतो ब्रजमंडल बसत तासों काम कौन,
आनंद के भौन तुम्हें देखि जी जियतु है।
सोऊ तुम इतै उतै अनत पनत हेरो,
याही दुःख दाहन सरीर छीजियतु है
ठाकुर कहत मेरी चाह की अचाह करौ;
चाहते को चाह की निबाह कीजियतु है।
प्रीति बिनु प्यारे कोऊ काहे को परेखो देह,
प्रीति की प्रतीत को परेखो दीजियतु है ॥५६॥
बिन आदर पाय कै बैठि ढिगां अपनो रुखदै रुख लीजतु है।
अपमान को मान परेखो कहा अपने हित पै चित दीजतु है
कवि ठाकुर काज निकारिबको नित कोटि उपाय करीजतु है
अपनी उरझी सुरझायबे को सबही की खुसामति कीजतु है!
ठा रहे घनश्याम उतै इत मैं पुनि आनि अटा चढ़ि झांकी ।
'जानति हो तुमहू ब्रज रीति न प्रीति रहै कबहूँ पल ढाकी ॥