पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/२०५

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१८८ तसव्वुफ अथवा सूफीमत दुआ ही चिंतामस्थि है। फकीरों के खिलाफ चलने की हिम्मत उनमें से किसी में नहीं है । लोग उनके दर्शन के लिये लालायित रहते और उनकी समाधि की पूजा करते हैं। माला जपते जपते जब उन्हें हाल आ जाता है तब उन्हें सब सिद्धियाँ मिल जाती हैं । परंतु, जो प्रांत कुछ सभ्य हो गए हैं और जिनको पश्चिम की हवा भी कुछ लग चली है उनमें समा का निषेध कर दिया गया । तंबाकू पीना तक मना कर दिया गया है। इसलाम की सबसे बड़ी सेवा तो उन फकीरों से यह हो रही है कि उनके शील, स्वभाव, प्रेम तथा करामत के कारण वहाँ के हबशी भी मुसलमान बनते जा रहे हैं और उन्होंने बहुत से मसीहियों को भी मुरीद बना अपने सिलसिलों में दाखिल कर लिया है। दरवेशों की प्रशंसा सुनकर लोग उनके पास जाते हैं और तुरत उनके मुरीद बन जाते हैं । इसलाम कबूल करने में महज कलमा की जरूरत पड़ती है जिसको जुबान किसी तरह कह ही लेती है । धीरे धीरे ये ही मुरीद इसत्नाम के अंग बन जाते हैं और बहुतों को मुसलिम बनाते हैं। इन सिलसिलों में अलजी- रिया का सनूसिया सिलसिला बड़ी तत्परता से बहुत काम कर रहा है । मरको में पीरों की समाधियों की खूब पूजा होती है। सुंदर रूप के लिये लड़की दरगाहों का पानी पीती तथा दुलहिन देवर के साथ जियारत करती और बलि चढ़ाती है। इदरीस का रोजा तो अपराधियों का थाना ही बना है उसमें घुस जाने से उनको भोजनछाजन ही नहीं अपितु अभयदान भी मिल जाता है। पर अब कभी कभी किसी अपराधी को कचहरी का मुंह देखना पड़ता है । भारत का अहमदिया संघ इन प्रांतों में भी कुछ काम कर रहा है। पर इससे सूफियों की ख्याति में अभी कुछ बध नहीं लगा है। अफगानों में इसलामी कट्टरता सभी मुसलिम प्रदेशों से अधिक है। श्री अमा- नुल्लाह ने अफगानों को तुर्क बनाने का जो प्रयत्न किया उसका परिणाम यह हुआ कि राज्य उनके हाथ से जाता रहा और कुछ ही दिनों के बाद मुल्लाओं का फिर आतंक छा गया । पर उसकी वर्तमान स्थिति को देख कर यह विश्वास करना पड़ता है कि श्री अमानुल्लाह ने अफगानिस्तान में जो सुधार के बीज बोए वे निष्फल नहीं गए। उसमें भी राष्ट्रभावना का उदय हो ही गया। आज उनको 'पश्तो' में जो