उसी दिन संध्या को इंद्रदेव के साथ शैला, श्यामदुलारी के पलंग के पास खड़ी थी। उसके मस्तक पर कुंकुम का टीका था। वह नववधू की तरह सलज्ज और आशीर्वाद से लदी थी।
श्यामदुलारी का जीवन अधिकार और सम्पत्ति के पैरों से चलता आया था। वह एक विडम्बना था या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। वह मन-ही-मन सोच रही जिस मातापिता के पास स्नेह नहीं होता, वही पत्र के लिए धन का प्रलोभन आवश्यक समझते हैं। किंतु यह भीषण आर्थिक युग है। जब तक संसार में कोई ऐसी निश्चित व्यवस्था नहीं होती कि प्रत्येक व्यक्ति बीमारी में पथ्य और सहायता तथा बुढ़ापे में पेट के लिए भोजन पाता रहेगा, तब तक माता-पिता को भी पुत्र के विरुद्ध अपने लिए व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा करनी होगी।
श्यामदुलारी की इस यात्रा में धन की आवश्यकता नहीं रही। अधिकार के साथ उसे बड़प्पन से दान करने की भी श्लाघा होती है। तब आज उनके मन में त्याग था। वद्धा श्यामदुलारी ने अपने कांपते हाथों से एक कागज शैला को देते हुए कहा—बहू मेरा लड़का बड़ा अभिमानी है। वह मुझे सब कुछ देकर अब मुझसे कुछ लेना नहीं चाहता। किंतु मैं तो तुमको देकर ही जाऊंगी। उसे तुमको लेना ही पड़ेगा। यही मेरा आशीर्वाद है,
लो।
शैला ने बिना इंद्रदेव की ओर देखे उस कागज को ले लिया।
अब श्यामदुलारी ने माधुरी की ओर देखा। उसने एक सुंदर डिब्बा सामने लाकर रख दिया। श्यामदुलारी ने फिर तनिक-सी कड़ी दृष्टि से माधुरी को देखकर कहा—अब इसे मेरे सामने पहना भी दे माधुरी! यह तेरी भाभी है।
मानव-हृदय की मौलिक भावना है स्नेह। कभी-कभी स्वार्थ की ठोकर से पशुत्व की, विरोध की, प्रधानता हो जाती है। परिस्थितियों ने माधुरी को विरोध करने के लिए उकसाया था। आज की परिस्थिति कुछ दूसरी थी। श्यामलाल और अनवरी का चरित्र किसी से छिपा नहीं था। वह सब जान-बूझकर भी नहीं आये। तब! माधुरी के लिए संसार में कोई प्राणी स्नेह-पात्र न रह जाएगा। श्यामदुलारी तो जाती ही हैं। प्रेम-मित्रता की भूखी मानवता। बार-बार अपने को ठगा कर भी वह उसी के लिए झगड़ती है। झगड़ती है, इसलिए प्रेम करती है। वह हृदय को मधुर बनाने के लिए बाध्य हुई। उसने अपने मुंह पर सहज मुस्कान लाते हुए डिब्बे को खोला। उसने मोतियों का हार, हीरों की चूडियां शैला को पहना दीं; और सब गहने उसी में पड़े रहे। शैला ने धीरे-से पहनाने के लिए माधुरी से कहा। माधुरी ने भी धीरे-से उसकी कपोल चूमकर कहा—भाभी!
शैला ने उसे गले से लगा लिया। फिर उसने धीरे-से श्यामदुलारी के पैरों पर सिर रख दिया। श्यामदुलारी ने उसकी पीठ पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया।
और, इंद्रदेव इस नाटक को विस्मय-विमुग्ध होकर देख रहे थे। उन्हें जैसे चैतन्य हुआ। उन्होंने मां के पैरों पर गिरकर क्षमा-याचना की।
श्यामदुलारी की आँखों में जल भर आया।