पृष्ठ:तितली.djvu/१५९

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तितली ने दुलार से पूछा।

मां मैंने पेड़ के नीचे, शेरकोट के पास जो घाट पर बड़ा-सा पेड़ है उसी के नीचे, आज संध्या को एक विचित्र...।

क्या तू डर गया है? पागल कहीं का!

नहीं मां, मैं डरता नहीं। पर शेरकोट के पास कौन बैठा था। मेरे मन में जैसे बडा...

जैसे बड़ा, जैसा बड़ा क्या बड़े खाएगा? तू भी कैसा लड़का है। साफ-साफ नहीं कहता?—तितली का कलेजा धक्-धक् करने लगा।

मां! मैं एक बात पूछे?

पूछ भी तितली ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। उसका पसीना अपने आंचल से पोंछकर वह उसकी जिज्ञासा से भयभीत हो रही थी।

मां!..

कह भी! मुझे जीते-जी मार न डाल! मेरे लाल! पूछ! तुझे डर किस बात का है? तेरी मां ने संसार में कोई ऐसा काम नहीं किया है कि तुझे उसके लिए लज्जित होना पड़े।

मां, पिताजी!...

हां बेटा, तेरे पिताजी जीवित हैं। मेरा सिंदूर देखता नहीं?

फिर लोग क्यों ऐसा कहते हैं?

बेटा! कहने दे, मैं अभी जीवित हूं। और मेरा सत्य अविचल होगा तो तेरे पिताजी भी आवेंगे।

तितली का स्वर स्पष्ट था। मोहन को आश्वासन मिला। उसके मन में जैसे उत्साह का नया उद्गम हो रहा था। उसने पूछा–मां, हमीं लोगों का शेरकोट है न? हां बेटा, शेरकोट तेरे पिताजी के आते ही तेरा हो जाएगा। कल मैं शैला के पास जाऊंगी। तू अब सो रह!

तितली को जीवन भर में इतना मनोबल कभी एकत्र नहीं करना पड़ा था। मोहन का ज्वर कम हो चला था। उसे झपकी आने लगी थी।

उसी कोठरी से सटकर एक मलिन मूर्ति बाहर खड़ी थी। सुकुमार लता उस द्वार के ऊपर बंदनवार-सी झुकी थी। उसी की छाया में वह व्यक्ति चुपचाप मानो कोई गंभीर संदेश सुन रहा था।

तितली की आंखो में एक क्षणिक स्वप्न आया और चला गया। उसकी आंखो फिर शून्य होकर खुल पड़ी। वह बेचैन हो गयी। उसने मोहन का सिर सहलाया। वह निर्मल हल्के-से ज्वर में सो रहा था। तब भी कभी-कभी चौंक उठता था। धीरे-धीरे उसके होठ हिल जाते थे। तितली जैसे सुनती थी कि वह बालक 'पिताजी' कह रहा है। वह अस्थिर होकर उठ बैठी। उसकी वेदना अब वाणी बनकर धीरे-धीरे प्रकट होने लगी-

नहीं! अब मेरे लिए यह असम्भव है। इसे मैं कैसे अपनी बात समझा सकूँगी! हे नाथ! यह संदेह का विष, इसके हृदय में किस अभागे ने उतार दिया। ओह! भीतर-ही-भीतर यह छटपटा रहा है। इसको कौन समझा सकता है। इसके हृदय में शेरकोट, अपने पुरखों की जन्मभूमि के लिए उत्कट लालसा जगी है।...ओह, सम्भव है, यह मेरे जीवन का पुण्य मुझे ही पापिनी और कलंकिनी समझता हो तो क्या आश्चर्य। मैंने इतने धैर्य से इसीलिए संसार का सब अत्याचार सहा कि एक दिन वह आवेंगे, और मैं उनकी थाती उन्हें सौंपकर अपने