सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:तितली.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



चलो, आज पाठ कब होगा? अभी तो मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ा।

मैं आज न पढूंगी।

क्यों?

यूं ही। और भी कई काम करने हैं।

शैला ने कहा—अच्छा, मैं भी आज न पढूंगी—बाबाजी से मिलकर चली जाऊंगी।

रामनाथ अभी उपासना करके अपने आसन पर बैठे थे। शैला उनके पास चटाई पर जाकर बैठ गई। रामनाथ ने पूछा—आज पाठ न होगा क्या? मधुबन भी नहीं दिखाई पड़ रहा है, तितली भी नहीं!

आज यूं ही मुझे कुछ बताइए।

पूछो।

हम लोगों के यहां जीवन को युद्ध मानते हैं, इसमें कितनी सच्चाई है। इसके विरुद्ध भारत में उदासीनता और त्याग का महत्त्व है?

यह ठीक है कि तुम्हारे देश के लोगों ने जीवन को नहीं, किंतु स्थल और आकाश को भी लड़ने का क्षेत्र बना दिया है। जीवन को युद्ध मान लेने का यह अनिवार्य फल है। जहां स्वार्थ के अस्तित्व के लिए युद्ध होगा वहां तो यह होना ही चाहिए।

किंतु युद्ध का जीवन में कुछ भाग तो अवश्य ही है। भारतीय जनता में भी उसका अभाव नहीं।

पर यह दूसरे प्रकार का है। उसमें अपनी आत्मा के शत्रु आसुर भावों से युद्ध की शिक्षा है। प्राचीन ऋषियों ने बतलाया है कि भीतर जो काम का और जीवन का युद्ध चलता है, उसमें जीवन को विजयी बनाओ।

किंतु, मैं तो ऐसा समझती हूं कि आपके वेदांत में जो जगत् को मिथ्या और भ्रम मान लेने का सिद्धांत है, वही यहां के मनुष्यों को उदासीन बनाता है? संसार को असत्य समझने वाला मनुष्य कैसे किसी काम को विश्वासपूर्वक कर सकता है।

मैं कहता हूं कि वह वेदांत पिछले काल का साम्प्रदायिक वेदांत है, जो तर्कों के आधार पर अन्य दार्शनिक को परास्त करने के लिए बना। सच्चा वेदांत व्यावहारिक है। वह जीवन-समुद्र आत्मा को उसकी सम्पूर्ण विभूतियों के साथ समझता है। भारतीय आत्मवाद के मूल में व्यक्तिवाद है; किंतु उसका रहस्य है समाजवाद की रूढ़ियों से व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करना। और, व्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्ति समता की प्रतिष्ठा, जिसमें समझौता अनिवार्य है। युद्ध का परिणाम मृत्यु है। जीवन से युद्ध का क्या सम्बंध, युद्ध तो विच्छेद है और जीवन में शुद्ध सहयोग है।

अच्छा, तो मैं मान लेती हूं परंतु...

सुनो, तुम्हारे ईसा के जीवन में और उनकी मृत्यु में इसी भारतीय संदेश की क्षीण प्रतिध्वनि है।

आपने ईसा की जीवनी भी पड़ी है?

क्यों नहीं! किंतु तुम लोगों के इतिहास में तो उसका कोई सूक्ष्म निदर्शन नहीं मिलता, जिसके लिए ईसा ने प्राण दिये थे। आज सब लोग यही कहते हैं कि ईसाई-धर्म सेमेटिक है, किंतु तुम जानती हो कि यह सेमेटिक धर्म क्यों सेमेटिक जाति के द्वारा अस्वीकृत हुआ?