पृष्ठ:तितली.djvu/७७

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थे। मिस अनवरी बातें कर रही थीं। मैं भीतर चली गई। पहले तो वह घबराकर उठ खड़े हुए। मेरा आदर किया। किंतु अनवरी ने जब मेरा परिचय दिया, तो उन्होंने बिल्कुल अशिष्टता का रूप धारण कर लिया। वह बीबी-रानी के पति हैं?

शैला आगे कहते-कहते रुक गई; क्योंकि इंद्रदेव के स्वभाव से परिचित थी। इंद्रदेव ने पूछा क्या कहा, कहो भी?

बहुत-सी भद्दी बातें! उन्हें सुनकर तुम क्या करोगे? मिस अनवरी तो कहने लगी कि उन्हें ऐसी हंसी करने का अधिकार है। मैं चुप हो रही। मुझे बहुत बुरा लगा। उठकर इधर चली आई।

इंद्रदेव ने भयानक विषधर की तरह श्वास फेंककर कहा शैला! जिस विचार से हम लोग देहात में चले आए थे, वह सफल न हो सका। मुझे अब यहां रहना पसंद नहीं। छोड़ो इस जंजाल को, चलो हम लोग किसी शहर में चलकर अपने परिचित जीवन-पथ पर सुख लें! यह अभागा...

शैला ने इंद्रदेव का मुंह बंद करते हुए कहा—मुझे यहीं रहने दो। कहती हूं न, क्रोध से काम न चलेगा। और तुम भी क्या घर को छोड़कर दूसरी जगह सुखी हो सकोगे? आह! मेरी कितनी करुण कल्पना उस नील की कोठी में लगी-लिपटी है! इंद्र! तुमसे एक बार तो कह चुकी हूं। वह उदास होकर चुप हो गई। उसे अपनी माता की स्मृति ने विचलित कर दिया।

इंद्रदेव को उसकी यह दुर्बलता मालूम थी। वह जानते थे कि शैला के चिर दुखी जीवन में यही एक सांत्वना थी। उन्होंने कहा-तो मैं अब यहां से चलने के लिए न कहूंगा। जिसमें तुम प्रसन्न रहो।

तुम कितने दयालु हो इंद्रदेव! मैं तुम्हारी ऋणी हं!

तुम यह कहकर मुझे चोट पहुंचाती हो शैला! मैं कहता हूं कि इसकी एक ही दवा है। क्यों तुम रोक रही हो। हम दोनों एक-दूसरे की कमी पूरी कर लेंगे। शैला स्वीकार कर लो।—कहते-कहते इन्द्रदेव ने उस आर्द्रहृदया युवती के दोनों कोमल हाथों को अपने हाथों में दबा लिया।

शैला भी अपनी कोमल अनुभूतियों के आवेश में थी। गद्गद कंठ से बोली-इंद्र! मुझे अस्वीकार कब था? मैं तो केवल समय चाहती हूं। देखो, अभी आज ही वाट्सन का यह पत्र आया है, जिसमें मुझे उनके हृदय के स्नेह का आभास मिला है। किंतु मैं...

इंद्रदेव ने हाथ छोड़ दिया। वाट्सन!—उनके मन में द्वेषपूर्ण संदेह जल उठा। तभी तो शैला! तुम मुझको भुलावा देती आ रही हो। ऐसा न कहो! तुम तो पूरी बात भी नहीं सुनते।

इंद्रदेव के हृदय में उस निस्तब्ध संध्या के एकांत में सरसों के फूलों से निकली शीतल सुगंध की कितनी मादकता भर रही थी, एक क्षण में विलीन हो गई। उन्हें सामने अंधकार की मोटी-सी दीवार खड़ी दिखाई पड़ी।

इंद्रदेव ने कहा—मैं स्वार्थी नहीं हूं शैला! तुम जिसमें सुखी रह सको।

वह कोठी की ओर चलने के लिए घूम पड़े। शैला चुपचाप वहीं खड़ी रही। इंद्रदेव ने पूछा-चलोगी न?