पृष्ठ:दासबोध.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दासबोध [ दशक ६ .. परन्तु आत्मा शाश्वत (नित्य) और निश्चल है; इसके सिवा रस अपूर्ण है और आत्मा केवल तथा परिपूर्ण है ॥ १०॥ आत्मा के समान यदि कुछ हो तो उसका दृष्टान्त दिया जाय ! परन्तु उसके अभाव में, कोई न कोई दृष्टान्त देकर, किसी न किसी तरह से, समझाना ही पड़ता है ॥ ११ ॥ अस्तु । ऐसी तो आत्मा को दशा ठहरी, तब वहां माया कैसे पैदा होगई? इसका दृष्टान्त देना कठिन है; परन्तु समझना चाहिए कि, जैसे आकाश वायु की झोंक आ जाती है ! ॥ १२ ॥ वायु से तेज, तेज से आप, और श्राप से पृथ्वी उत्पन्न हुई ॥ १३ ॥ इसके बाद पृथ्वी से न जाने कितने जीव उत्पन्न हुए; परन्तु ब्रह्म इन सब के आदि अंत में व्यापक है ॥ १४ ॥ जो कुछ उत्पन्न हुआ है वह सब नश्वर है, परन्तु आदि परब्रह्म यथातथ्य स्थिर है ॥ १५॥ घड़ा बनने के पहले आकाश होता है और घड़ा के भी- तर भी आकाश होता है; परन्तु घड़ा फूट जाने पर जैसे आकाश नहीं फूटता-वह नाश नहीं होता-वैसे ही परब्रह्म केवल अचल और अटल है -बीच में सम्पूर्ण चराचर जीव होते जाते हैं ॥ १६-१७ ॥ जो कुछ उत्पन्न होता है वह पहले ही ब्रह्म से व्याप्त होता है-और उसके नाश होने पर भी वह अविनाशी ब्रह्म बना रहता है ॥ १८ ॥ ज्ञाता पुरुष उसी अवि- नाशी ब्रह्म का विवेक करते हैं-अर्थात् पंचमहातत्वों का पंचमहातत्वों में निरसन करके अपने को प्राप्त करते हैं ॥ १६ ॥ यह देह पंचतत्वों से बनी है। ज्ञाता पुरुष इन तत्वों का अच्छी तरह अाविष्करण करते हैं ॥२०॥ तत्वों का आविष्करण हो जाने पर उनका देहाभिमान जाता रहता है और इस प्रकार, विवेक से, वे निर्गुण ब्रह्म में अनन्य हो जाते हैं ॥ २१ ॥ विवेक से, इस देह के पांचो तत्व जब पांचो तत्वों में मिल जाते हैं तब 'मैं' या 'हम' का कुछ पता नहीं रहता* ॥ २२ ॥ जब हम 'अपने' का खोज करते हैं तब मालूम होता है कि हमारी' या 'मेरी' या 'अपनी' वार्ता बिलकुल मायिक है; क्योंकि तत्वों का निरसन करने से वास्तव में केवल निर्गुण ब्रह्म ही रहता है और कुछ नहीं ॥ २३ ॥ “ अपने " को (देहबुद्धि को) छोड़ कर केवल निर्गुण ब्रह्म का अनुभव करना ही आत्म- निवेदन का मर्म है; क्योंकि 'मैं-तू ' या 'मेरा तेरा' का भ्रम तो तत्वों के साथ ही निकल जाता है ॥ २४ ॥ यदि मैं' का खोज करते हैं तो वह तो मिलता नहीं और इधर निर्गुण ब्रह्म बिलकुल अचल है। अतएव,सच पूछिये इस देह का विचार करने से जान पड़ता है कि यह पंचभूतात्मक है । इस पंचभौतिक शरीर के एक एक करके पाँचो तत्व उन्हीं तत्वों में वाँट देने से वाकी ‘मेरा तेरा' कुछ नहीं क्वता । वचता है केवल निर्गुण आत्मा; इसीको ‘अपना ' या 'मेरा' कह सकते हैं। .