पृष्ठ:दासबोध.pdf/३९८

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समास २] संसार का अनुभव। का क्या जानेगा? ऊपर जो सिद्धान्त बतलाया उसके अनुसार न चलने से स्वाभाविक ही दरिद्रता श्राती है ॥ ७ ॥ सच तो यह है कि, लोग आपस में एक दूसरे के मन की बात जान नहीं सकते; और इसी कारण उनमें समान ववि नहीं होता; तथा अज्ञान के कारण, नाना प्रकार के झगड़े उपस्थित होते हैं ॥ ८॥ वही झगड़े फिर बढ़ते जाते हैं; अतएव, सभी कष्ट पाते हैं। प्रयत्न तो एक ओर रह जाता है। व्यर्थ श्रम ही होता है॥॥ परन्तु वास्तव यह बर्ताव विहित नहीं है । नाना प्रकार के लोगों की परीक्षा करनी चाहिए और जो जैसा हो उसे वैसा समझना चाहिए ॥ १०॥ वचनों की और मन की परीक्षा दक्ष पुरुष को थोड़ी वहुत मालुम होती है; मूर्ख पुरुप को ये बातें कैसे मालूम हो सकती हैं ? ॥ १६ ॥ संसार में प्रायः यही देखा जाता है कि, लोग अपना पक्ष- पात और दूसरे की निन्दा करना जानते हैं ॥ १२ ॥ परन्तु अपनी प्रतिष्ठा रखने के लिए भले श्रादमी को वह निन्दा भी सहनी पड़ती है; न सहने से हँसी होना स्वाभाविक बात है ॥ १३ ॥ जहां अपने को अच्छा नहीं लगता वहां रहना कदापि सुहाता नहीं और किसीकी मुरौवत तोड़ कर जाना भी अच्छा नहीं लगता ॥ १४ ॥ परन्तु, जो सत्य बोलता है, और सत्य ही आचरण करता है, उसे छोटे बड़े सभी चाहते हैं । न्याय और अन्याय की बात आपस में सहज ही मालूम हो जाती है ॥ १५ ॥ जब तक कोई मनुष्य, दूसरों के अपराधों को, विवेकपूर्वक, क्षमा नहीं करता तब तक उस पर लोगों की भक्ति नहीं होती और लोग उसे एक मामूली मनुप्य समझते हैं ॥ १६ ॥ जब तक चन्दन घिसता नहीं तब तक सुगंध प्रकट नहीं होती और अन्य वृक्षों की तरह वह भी समझा जाता है ॥ १७ ॥ जब तक लोगों को किसीके उत्तम गुण नहीं मालूम होते तब तक उन्हें उसकी परीक्षा कैसे हो सकती है ? उत्तम गुण देख कर संसार प्रसन्न हो जाता है ॥१८॥ और संसार के प्रसन्न होते ही संसार से मित्रता हो जाती है तथा सम्पूर्ण लोग प्रसन्न हो जाते हैं॥१६॥ और जब जगत्पी जनार्दन (ईश्वर) ही उस पर प्रसन्न हो गया तब फिर उसके लिए क्या कमी है ? परन्तु सब को राजी रखना कठिन हैं। ॥ २० ॥ बोया हुआ उगता है; दिया हुआ बायन लौट कर मिलता है। मर्म की बात कह देने से दूसरे का मन दुखता है ॥ २१ ॥ लोगों के साथ भलाई करने से सुख बढ़ता है । शब्द के अनुसार ही प्रतिशब्द श्राता है ।। २२ ॥ यह सब अपने ही अधीन की बात है-दूसरों का इसमें कोई दोष नहीं-अपने मन को क्षण क्षण पर सिखाते रहना चाहिए