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शहादत थी मिरी क़िस्मत में, जो दी थी यह ख़ू मुझको
जहाँ तलवार को देखा, झुका देता था गर्दन को
न लुटता दिन को, तो कब रात को यों बेख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का, दु'आ देता हूँ रहज़न को
सुख़न क्या कह नहीं सकते, कि जोया हूँ जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते, कि खोदें जाके मा‘दन को
मिरे शाह-ए-सुलेमाँ जाह से निस्बत नहीं, ग़ालिब
फ़रीदून-ओ-जम-ओ-कैख़ुसरु-ओ-दाराब-ओ-बहमन को
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धोता हूँ जब मैं पीने को, उस सीमतन के पाँव
रखता है, ज़िद से, खंच के बाहर लगन के पाँव
दी सादगी से जान, पड़ूँ कोहकन के पाँव
हैहात, क्यों न टूट गये, पीरज़न के पाँव
भागे थे हम बहुत, सो उसी की सज़ा है यह
होकर असीर दाबते हैं, राहज़न के पाँव
मरहम की जुस्तुजू में, फिरा हूँ जो दूर दूर
तन से सिवा फिगार हैं, इस खस्तःतन के पाँव