पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शहादत थी मिरी किस्मत में, जो दी थी यह खू मुझको जहाँ तलवार को देखा, झुका देता था गर्दन को न लुटता दिन को, तो कब रात को यों बेख़बर सोता रहा खटका न चोरी का, दुआ देता हूँ रहजन को सुख़न क्या कह नहीं सकते, कि जोया हूँ जवाहिर के जिगर क्या हम नहीं रखते, कि खोदें जाके मा‘दन को मिरे शाह-ए-सुलेमाँ जाह से निस्बत नहीं, गालिब फ़रीदून-ओ-जम-प्रो-कैखुसरु-ो-दाराब-ओ-बहमन को 4. १२२ . धोता हूँ जब मैं पीने को, उस सीमतन के पाँव रखता है, जिद से, खंच के बाहर लगन के पाँव दी सादगी से जान, पइँ कोहकन के पाँव हैहात, क्यों न टूट गये, पीरज़न के पाँव भागे थे हम बहुत, सो उसी की सजा है यह होकर असीर दाबते हैं, राहजन के पाँव मरहम की जुस्तुजू में, फिरा हूँ जो दूर दूर तन से सिवा फिगार हैं, इस खस्तःतन के पाँव