पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१७०

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क़त‘अः


ख़ामः मेरा, कि वह है बारबद-ए-बज़्म-ए-सुखन
शाह की मद्ह में, यों नग़्मः सरा होता है

अय शहनशाह-ए-कवाकिब सिपह-ओ-मेह 'अलम
तेरे इक्राम का हक़, किस से अदा होता है

सात इक़्लीम का हासिल जो फ़राहम कीजे
तो वह लश्कर का तिरे ना‘ल बहा होता है

हर महीने में, जो यह बद्र से होता है हिलाल
आस्ताँ पर तिरे मह नासियः सा होता है

मैं जो गुस्ताख़ हूँ आईन-ए-ग़ज़ल ख्वानी में
यह भी तेरा ही करम ज़ौक़ फ़िज़ा होता है

रखियो, ग़ालिब, मुझे इस तल्ख़नवाई में मु‘आफ़
आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है

१७९

हर एक बात प कहते हो तुम, कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि यह अन्दाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है