पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जख्म गर दब गया, लहू न थमा काम गर रुक गया ; रवा न हुआ रहज़नी है, कि दिल सितानी है ले के दिल, दिलसिताँ रवाना हुआ कुछ तो पढ़िये, कि लोग कहते हैं आज गालिब ग़ज़लसरा न हुआ गिला है शौक को, दिल में भी तंगि-ए-जा का गुहर में मह्व हुआ इज्तिराब दरिया का यह जानता हूँ, कि तू और पासुख़-ए-मक्तूब मगर , सितम जद: हूँ, जौक़-ए-ख़ामःफरसा का हिना-ए-पा-ए-ख़िजाँ है, बहार अगर है यही दवाम कुल्फ़त-ए-ख़ातिर है 'त्रैश दुनिया का ग़म-ए-फ़िराक में, तकलीफ-ए-सैर-ए-बारा न दो मुझे दिमाग़ नहीं ख़न्दःहा -ए-बेजा का हनोज महरमि -ए- हुस्न को तरसता हूँ करे है हर बुन-ए-मू काम चश्म-ए-बीना का