पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/७५

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आता है मेरे क़त्ल को, पर जोश-ए-रश्क से
मरता हूँ उसके हाथ में तलवार देख कर

साबित हुआ है, गर्दन-ए-मीना प ख़ून-ए-ख़ल्क
लरज़े है मोज-ए-मै तिरी रफ्तार देख कर

वा हसरता, कि यार ने खेंचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर

बिक जाते हैं हम आप, मता‘-ए-सुख़न के साथ
लेकिन, ‘अयार-ए-तब‘-ए-ख़रीदार देख कर

जुन्नार बाँध, सुब्हः-ए-सद् दानः तोड़ डाल
रहरौ चले है राह को, हमवार देख कर

इन आबलों से पाँव के, घबरा गया था में
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर खार देख कर

क्या बदगुमाँ है मुझ से, कि आईने में मिरे
तूती का ‘अक्स समझे है, ज़ंगार देख कर

गिरनी थी हम प बर्क़-ए-तजल्ली, न तूर पर
देते हैं बादः, ज़र्फ़-ए-क़दह ख़्वार देख कर

सर फोड़ना वह, ग़ालिब-ए-शोरीदः हाल का
याद आ गया मुझे, तिरी दीवार देख कर