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आये हो कल और आज ही कहते हो, कि जाऊँ
माना, कि हमेशः नहीं अच्छा, कोई दिन और
जाते हुये कहते हो, क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और
हाँ अय फ़लक-ए-पीर, जवाँ था अभी ‘आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन अैर
तुम माह-ए-शब-ए-चारदहुम थे, मिरे घर के
फिर क्यों न रहा घर का वह नक़्शा कोई दिन और
तुम कौन से थे ऐसे खरे, दाद-ओ-सितद के
करता मलकुल मौत तक़ाजा, कोई दिन अैर
मुझसे तुम्हें नफ़रत सही, नय्यर से लड़ाई
बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और
गुज़री न बहरहाल यह मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश
करना था, जवाँमर्ग, गुज़ारा कोई दिन और
नादाँ हो, जो कहते हो, कि क्यों जीते हो ग़ालिब
क़िस्मत में है, मरने की तमन्ना कोई दिन और