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भारतवर्ष––'दरिद्रता का घर'

सेना के जहाज़ में सवार होने से ६ मास पूर्व ही उसका सम्पूर्ण व्यय भारत के कर से चुका लिया जाता है। भारत सरकार उसे अपने ऊपर ब्रिटिश-सेना के वेतन-विभाग का ऋण मान लेती है। भारतीय सिपाही विद्रोह के सङ्कट काल में, जब कि भारतवर्ष की आर्थिक अवस्था अत्यन्त शोचनीय हो गई थी, ग्रेट ब्रिटेन ने समस्त विशेष सेना का, उसके भारत के लिए रवाना होने के समय से व्यय ही नहीं लिया किन्तु भारत को रवाना होने के पूर्व ६ मास तक उसने जो ब्रिटिश की सेवा की थी उसका भी व्यय मांगा[१]"

परन्तु विद्रोह के व्यय सम्बन्ध में सर जार्ज विंगेट से भी एक बहुत बड़े व्यक्ति ने अपने स्पष्ट और निर्भय शब्दों में कहा था:––

"जोन ब्राइट ने कहा––'मेरी सम्मति से विद्रोह का ४ करोड़ व्यय का भार भारतवर्ष के निवासियों पर रखना उनके लिए एक बड़ा ही दुखदायी बोझा होगा। यह विद्रोह इँगलैंड के निवासियों और पार्लियामेंट के कुप्रबन्ध का फल है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को उसका न्यायोचित भाग दिया जाय तो इसमें सन्देह नहीं कि यह ४ करोड़ उस कर की आय से चुकाया जाना चाहिए जो इस देश के लोगों पर लगाया जाता है[२]।"

यह ऋण इँगलेंड ने भारतवर्ष को सार्वजविक हित के लिए दिया हो सो बात भी नहीं; क्योंकि भारतवर्ष में १८५० ई॰ से पहले रेल-मार्ग नहीं थे। जब भारत कम्पनी के हाथों से निकलकर ब्रिटिश-ताज के तले आया तब इस बात की व्यवस्था की गई कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की पूँजी का भाज्य, ग्रेट ब्रिटेन में कम्पनी के किये ऋण, तथा कम्पनी के अन्य समस्त राज्य सम्बन्धी ऋण 'केवल भारत के कर की आय से वसूल किये जायँगे और वसूल किये जाने चाहिए। इस प्रकार उस समय तक कम्पनी की पूँजी पर भारतवर्ष जो वार्षिक व्याज देता था वह स्थायी कर दिया गया क्या संसार के इतिहास में इसके समान कोई बात मिल सकती है?


  1. 'भारतवर्ष के साथ हमारा आर्थिक सम्बन्ध' मेजर बिंगेट-लिखित, लन्दन, १८५९।
  2. ईस्ट इंडिया कम्पनी के ऋण के सम्बन्ध में जोन ब्राइट का व्याख्यान मार्च १८५९।